द्रोपदी
था स्वर्णिम दिनमान गगन में, प्रबल प्रमथ हठ धार लिए ।
सोया था युग नव प्रलम्ब पर, जाग्रत का चित्कार लिए ।।1
फिर से दस्तक ठान रही थी, खिलने को विश बेलों में ।
फिर से युग कसने को उद्यत, राज सिंहासन खेलों में ।।2
फिर से झुकने को थी आतुर, कलुषित फल ले डाली थी ।
फिर से युग धिक्कार नारि की, अस्मत कसने वाली थी ।।3
शौर्य ब्यस्त था भरतवंश का, कुटिल चाल मतवालों में । विवश कलम थी बर्बादी का, गाथा लिखने वालों में ।।4
वक्त चीखता पूछ रहा था, शौर्य मार्ग में चौसर क्यों ।
हो पौरुष तो शौर्य दिखाओ, कुटिल चाल पर जौहर क्यों ।। 5
पर प्रारब्ध अटल तुल आया, होनी ब्यग्र थी आने को ।
कुरु बंश था तुला हुआ, काला इतिहास लिखाने को ।।6
महारथी से भरी सभा थी, द्रोण कृपा मर्मज्ञ विदुर ।
ज्येष्ठ वीर थे भीष्म पितामह, पुरुजित नरपुंगव थे उदुर ।।7
सभा सन्न सा देख रही थी, तूफानी चीत्कार लिए ।
पर एक कायर चीख रहा था, सिंहासन हुंकार लिए ।।8
भाग्य कुरु की ठहर गई थी, शकुनी अंगुल पोरों पर ।
भुज भुजंग टंकार लिए थी, चीख रही थी कोरों पर ।। 9
राज सिंहासन डोल रहा था, कुटिल शकुन के चालों पर ।
पाण्डव जंग को हार रहे थे, चौसर गोटी पालों पर ।। 10
सभा सन्न थी देख रही थी, सांसें सबकी थमी हुई ।
तूफानों की आहट में थी, सबकी आंखें जमी हुई । 11
हार गए जब राजपाट धन, दौलत वैभव जन सारी ।
बचा ही क्या अब भेंट चढ़ा दें, खुद का तन इक थी नारी ।।12
वह भी बाजी लगी द्यूत में, वैभव हार में सार गये ।
खुद भी हारे पांचो पाण्डव, द्रोपड को भी हार गये ।।13
आगे कल