दौर-ए-सफर
दौर- ए- सफर जिंदगी में चलते हुए हमने कभी सोचा न था,
नफरत के ज्वार में चिरागों को इस तरह बुझते हुए देखा न था I
भविष्य के नौनिहालों को गर्त में गिरते हुए देखा,
रोटी के एक-एक टुकड़े के लिए तड़पते हुए देखा,
नन्हें फूल- कलियों को हमने आग में जलते हुए देखा ,
इंसानियत को लाचार-लहूलुहान होते हुए भी देखा I
दौर- ए- सफर जिंदगी में चलते हुए हमने कभी सोचा न था,
नफरत के ज्वार में चिरागों को इस तरह बुझते हुए देखा न था I
फूल ही फूल पर ऊँगली उठा कर अपने को माली बता रहा,
खुबसूरत बगिया में जहर का लहू पिलाकर अपना बता रहा,
मेरे प्यारे गुलशन में आग और अंगारों का खेल कौन खेल रहा ?
जानकर भी अनजान बनकर “मालिक का बंदा” खड़ा देख रहा I
दौर- ए- सफर जिंदगी में चलते हुए हमने कभी सोचा न था,
नफरत के ज्वार में चिरागों को इस तरह बुझते हुए देखा न था I
जिस पर “ मालिक “ का हाथ हो उसे कौन मिटा सकता ?
बगिया के फूलों और कलियों को कौन आँख दिखा सकता ?
तेरे खूबसूरत इस गुलशन के सपनों को कौन डिगा सकता ?
सत्ता के लिए भटकते “राज” को तू ही सही रास्ते ला सकता ?
दौर- ए- सफर जिंदगी में चलते हुए हमने कभी सोचा न था,
नफरत के ज्वार में चिरागों को इस तरह बुझते हुए देखा न था I
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देशराज “ राज ”
कानपुर