*दौड़ (अतुकान्त कविता)*
दौड़ (अतुकान्त कविता)
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जैसे ही देश के लिए दौड़ शुरू हुई हमने कुछ लोगों को सुस्ताते पाया,
धर दबोचा और गुस्सा दिखाया:
“आप देश के लिए नहीं दौड़ते हैं
अभी से सुस्ताते हैं ?”
वह बोले “भाई साहब!
आप गलत मतलब निकाल कर आते हैं।
दरअसल दौड़ते-दौड़ते
हमारे दोनों पॉंव अकड़कर ऐंठे हैं
इसीलिए हम सुस्ताने के लिए बैठे हैं।
बूढ़े हो गए …प्रधानमंत्री-पद के लिए
दौड़ते-दौड़ते
…अब उम्मीद ही नहीं रही।”
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फिर दूसरे धावक ने अपनी व्यथा कही :
” मैं हाल ही में मुख्यमंत्री पद के लिए कई दिन लगातार दौड़ा,
जुगाड़बाजी से मुँह नहीं मोड़ा
मगर असफलता ही पाई है, इसीलिए थोड़ा सुस्ताकर थकान मिटाई है।”
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फिर मैंने दौड़ते हुए कई लोगों की
आँखों में झॉंका,
उन्हें मन ही मन आँका
पता चला कि
कई लोग मंत्री-पद पाने के लिए
दौड़ लगा रहे थे,
कुछ लोग राज्यपात बनने के लिए
दौड़ में शामिल थे
कुछ के मन में इच्छा थी
कि वे विधायक बनें
कुछ राज्यसभा
और कुछ विधान परिषद की दौड़ में थे।
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कुछ को मैंने कोटा-परमिट-लाइसेंस के लिए
कुछ को सरकारी अनुदान के लिए
कुछ को तबादला करा के मनचाहे स्थान के लिए
कुछ को नौकरी के एहसान के लिए दौड़ता पाया ।
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फिर मुझे सभी जगह
सब लोग बदहवासी में दौड़ते हुए नजर आए।
कुछ लोग दफ्तर जाने के लिए कुछ दफ्तर से आने के लिए
कुछ बच्चों को स्कूल पहुॅंचाने के लिए
कुछ दो समय की रोटी का जुगाड़ लगाने के लिए
फाइव स्टार होटल से ढाबे तक
मंत्री से लेकर संतरी तक
अफसर से लेकर चपरासी तक सभी दौड़ रहे थे।
खास आदमी से लेकर इस तरह आम आदमी तक।
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फिर मुझे लगा कि वे किसी दिशा में नहीं जा रहे हैं,
बस चक्कर लगा रहे हैं।
चक्कर पे चक्कर ।
हे भगवान! मैं चकरा गया।
तभी मुझे कोल्हू का बैल दिखा
मैने उससे पूछा घनचक्कर !
क्या यह बताएगा कि तू आदमी है
या बैल है ?”
वह बोला, सब किस्मत का खेल है
पिछले जन्म में मैं भी आदमी था
तब ये सब बैल थे।
चक्कर हर बार वैसा ही चल रहा है
कभी आदमी, बैल बनता है
कभी बैल, आदमी का शरीर पाता है
नतीजा हाथ में कुछ नहीं आता है।
काश ! अगली बार आदमी का
जन्म मिले,
तो विचार करूंगा कि इस चक्कर से बाहर कैसे आऍं ?
फिलहाल तो कोल्हू में फॅंसे हैं
या तो कोल्हू को खींचते रहें
या मालिक की मार खाऍं।
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रचयिता :रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा रामपुर उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451