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1 Nov 2021 · 2 min read

दौड़ (अतुकांत कविता)

दौड़ (अतुकांत कविता)
■■■■■■■■■■■■■■■■■
जैसे ही देश के लिए दौड़ शुरू हुई
हमने कुछ लोगों को सुस्ताते पाया
धर दबोचा और गुस्सा दिखाया :
“आप देश के लिए नहीं दौड़ते हैं
अभी से सुस्ताते हैं?”

वह बोले “भाई साहब !
आप गलत मतलब निकाल लाते हैं,
दरअसल दौड़ते- दौड़ते
हमारे दोनों पाँव अकड़कर ऐंठे हैं,
इसीलिए हम सुस्ताने के लिए बैठे हैं।
बूढ़े हो गए प्रधानमंत्री पद के लिए
दौडते- दौड़ते
अब उम्मीद ही नहीं रही।”

फिर दूसरे व्यक्ति ने अपनी व्यथा कही : “मैं हाल ही में मुख्यमंत्री पद के लिए कई दिन लगातार भागा,
जुगाड़‌बाजी से मुँह नहीं मोड़ा
मगर रहा फिर भी अभागा।

फिर मैंने दौड़ते हुए कई लोगों की
आँखों में झाँका,
उन्हें मन ही मन आँका
तो पता चला कि कई लोग मंत्री पद पाने के लिए
दौड़ लगा रहे थे
कुछ राज्यपाल बनने के लिए
दौड़ में शामिल थे
कुछ के मन में इच्छा थी
कि विधायक का पद पाएँ
कुछ चाहते थे कि राज्य सभा विधान परिषद में जाएँ।

कुछ को मैने
कोटा, परमिट लाइमेन्स पाने के लिए
कुछ को सरकारी अनुदान का जुगाड़ लगाने के लिए
कुछ को तबादला कराने के लिए
कुछ को उगाही वाली मनचाही जगह पाने के लिए
कुछ हो नौकरी दिलाने के लिए दौड़ता पाया ।

फिर मुझे सभी जगह
सब बदहवासी में दौड़ते हुए नजर आए।

कुछ लोग दफ्तर जाने के लिए
कुछ दफ्तर से आने के लिए
कुछ बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए
कुछ दो समय की रोटी का जुगाड़ लगाने के लिए

फाइन स्टार होटल से ढाबे तक
मंत्री से लेकर सन्तरी तक
अफसर से लेकर चपरासी तक
खास आदमी से लेकर आम आदमी तक
सभी दौड़ रहे थे।

फिर मुझे लगा कि वे
किसी दिशा में नहीं जा रहे हैं
बस दौड़ लगा रहे हैं ।

चक्कर पर चक्कर पर चक्कर
हे भगवान ! मैं घबरा गया
तभी मुझे कोल्हू का बैल दिखा
मैने उससे पूछा “घनचक्कर !
क्या यह बताएगा कि तू आदमी है या बैल है ?”
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
रचयिता : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

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