दो शे’र ( ख़्याल )
दर्द का समंदर पी रहा हूँ मैं ।
ग़नीमत है कि जी रहा हूँ मैं ।।
मिरी आवाज़ बहुत खलती है ।
वास्ते इसीके लब सी रहा हूँ मैं ।।
©डॉ. वासिफ़ काज़ी, इंदौर
©काज़ी की क़लम
दर्द का समंदर पी रहा हूँ मैं ।
ग़नीमत है कि जी रहा हूँ मैं ।।
मिरी आवाज़ बहुत खलती है ।
वास्ते इसीके लब सी रहा हूँ मैं ।।
©डॉ. वासिफ़ काज़ी, इंदौर
©काज़ी की क़लम