दो वक़्त की यारी का फर्क
आज कुछ पुरानी बातों को याद कर एक नई दास्तां लिखते हैं,
मिसाल है जो दोस्ती की जग में उनके बारे में बात करते हैं,
इंटरनेट ईमेल के जमाने को भूल उस ख़त के जमाने में वापिस चलते हैं,
जहां हर दिल में बसती थी सिर्फ सच्चाई उन दिनों को याद करते हैं,
जहां यारी के बिन अपने ही घर का त्यौहार सूना लगता था,
उन यारी के किस्सों की आज समय पर बौछार करते हैं,
जहां बंदिशें न थी समाज की और न ही फरेब का पहरा था,
बेमतलब सा हर दिल से जुड़ा तब रिश्ता बहुत गहरा था,
अब यारी हो गई नाम की जो पैसों से तौली जाने लगी,
किसने कितना खर्चा किया इस बात पर टिकने लगी,
यारी उन दिनों की तब हर फर्क से अनजान हुआ करती थीं,
दोस्ती की महफ़िल भी सजती वहा पर जहां अमीरी गरीबी की बात न होती थी,
दुखी होता एक दोस्त तो उस वक़्त अश्क हर दोस्त की आंख से गिरते थे,
किसी एक की खुशी में सब अपनी हर हार को भूल जाते थे,
अब साथ होता खुशी में सबका पर आंखे नम अकेले ही होती है,
टूट जाती हर कसम दोस्ती की जब बात अपने अहम पर आती है,
रिश्ता होता तब गजब का जब दोस्त का परिवार भी हमारा परिवार बन जाता था,
आंख उठाता कोई दोस्त की बहन पर तो खून हमारा खोल जाता था,
अब दोस्त की बहन बहन नहीं मेहबूबा की फेहरिस्त में शामिल हो गई,
क्यूंकि अब दोस्ती दिलों की नहीं दिमाग और मतलब की हो गई