दो मुक्तक
“ वृद्ध, चने बेचने वाला “
रोज ही रोग से मर रहे काँपते ,
बोझ पर बोझ ले दौड़ते हाँफते ,
सांस भी थी उखड़ते –उखड़ते बची ,
बेच कर लौटते खाँसते –खाँसते ।
“ मिथ्या धर्म के ठेकेदार “
थोक में बेचते धर्म – ईमान हैं ,
खोजते नित नये दाँव बे ईमान हैं ,
शेर की खाल में जा छिपे भेड़िये ,
पा रहे बेबजह श्वान सम्मान हैं ।
डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव , सीतापुर
26-03-2019