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19 Oct 2016 · 1 min read

दो मुक्तक

स्वदेश :
जन्मभूमि को कभी भूलो नहीं, यही है स्वदेश
पढ़ लिख कर हुए बड़े, तुम्हारा परिचित परिवेश
एक एक कण रक्त मज्जा, बना इसके अन्न से
कमाओ खाओ कहीं, पर याद रहे अपना देश |

विदेश :
विदेश का सैर सपाटा सब सुहाना लगता है
नए लोग, परिधान नई, दृश्य सबको भाता है
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जिसके मन में यही भावना
विदेश भी उस इंसान को अपना वतन लगता है |

© कालीपद ‘प्रसाद’

Language: Hindi
455 Views
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