दो पेड़ लगाऊँ कैसे
प्रकृति की देवी कुपित है मैं मनाऊँ कैसे
जल रही दुनिया प्रदूषण से बचाऊँ कैसे
कट रहे जंगल और सूख रहे हैं सागर
अब बताओ तो मानसून मैं लाऊँ कैसे
बैठी मुंडेर पे भावुक हो रो पड़ी चिड़िया
कट गये पेड़ घोसला मैं बनाऊँ कैसे
दर्द अपना बयाँ करते हुए बोली धरती
हो गया भार बहुत अब मैं उठाऊँ कैसे
राह नदियों की मुड़ी और जल उठा सूरज
गयी छत टूट घर की छाँव मैं पाऊँ कैसे
जल प्रलय आया पहाड़ों पे तबाही आयी
बोली मंदाकिनी रफ्तार घटाऊँ कैसे
स्वार्थ में,धन की लालसा में कह रहा ‘संजय’
वक्त़ मिलता नहीं दो पेड़ लगाऊँ कैसे