दो पल भी अगर
कविता
दो पल भी अगर
*अनिल शूर आज़ाद
कल की रात
एक तूफ़ानी रात थी
मैं इन्तज़ार करता रहा
अपने वायदे के/बावजूद मगर
तुम नही आई
सायं-सायं करती हवा
सारी रात/ऊपर दस्तक देती रही
और मैं रातभर/अपने अंधेरों से
बातें करता रहा
ज़हान-भर का अंधकार
जाने कब/दबे पांव आकर
मेरे अन्तस में/समा गया
तुम्हारे स्वागत के लिए
आसमान में सजे/अनगिनत तारे
एक-एक कर/मर गए
मुस्कराते चांद को/डरावने बादल ने
एकाएक/निगल लिया
इस सबके लिए/पूरी बस्ती के झींगुर
रातभर मातमी गीत/गाते रहे
मगर तुम/नही आई
करोड़ों तारे जगमग होकर
तुम्हारा पथ/आलोकित करते
आकाशगंगा,सप्तऋषि और ध्रुव
स्वयं तुम्हे राह बताते
सारी कायनात/खुशियों से सरोबार होती
मेरी ठंडी होती
चिता पर आकर/तुमने
दो पल भी अगर
बिताए होते…
(रचनाकाल : वर्ष 1991)