दो घड़ी बसर कर खुशी से
क्या ले जाना है इस जिंदगी से
दो घड़ी बसर कर खुशी से
वक्त का क्या पता मिले ना मिले
हँस ले दो पल
दिल की कली खिले ना खिले
क्या मिलेगा पलकों पे नमी से
दो घड़ी बसर कर खुशी से
फूल बनकर सदा मुस्कुराए जा
भंवरों को देख
और हर पल यूँ गुनगुनाए जा
सीख ले कुछ तारों की हंसी से
दो घड़ी बसर कर खुशी से
कब दौलत से सब कुछ मिला है
सच्च कहूँ तो
ये कमाना बस सिलसिला है
कौन इसे ले जा सका जमीं से
दो घड़ी बसर कर खुशी से
“V9द” रिश्तों में ही दरारें पड़ी हैं
देखो जिधर भी
शिकवों की मीनारें खड़ी हैं
चेहरे उतरे हैं ये सब बेबसी से
दो घड़ी बसर कर खुशी से
स्वरचित
V9द चौहान