दो कौर के घटिया निवाले पे…
कई प्रश्न है, जो टांक रखे हैं
मन के अजीब से आले पे
क्या,तुम भी गिरे हो चोट खाके
दिल के दोहरे से दीवालों पे
अहसास शायद तुम में भी हैं
इस में दबे हम ही नही अकेले हैं
रातें मेरी अभी जरा उलझी सी है
चैन उलझी हैं तुम्हारे ही चौबारे से
अबके जो मैं लौटी रही हूँ
तो शायद ही कभी मिलूं तुम्हें
सुलझी-उलझी जज्बातों में
खुद को कैद करने को चली हूँ
अबकी मैं रस्मों कसमों के
सुनहरी सी मजबूत दीवारों में
खुद को खोकर जाने क्या मैं पाउंगीं
तुमको भी तो शायद …
फिर कभी रास नही मैं आउंगी
सब कुछ अपना वार दिया है
दो कौर के घटिया निवाले पे…
… सिद्धार्थ