दोहे
डंडे झंडे शोरगुल
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सत्ता-सुख की भूख ने, ऐसा मारा डंक.
दिल्ली तक है आ गया, ढाका का आतंक.
डंडे झंडे शोरगुल, जातिवाद अलगाव.
भड़कीला भाषण हवस, अगला कदम चुनाव.
धर्म जाति मनुवाद की, खड़ी हो रही खाट.
राजनीति का ककहरा, अब है ‘अस्सी घाट.’
राजनीति को दे रहा, सत्ता-शक्ति समाज.
क्या सुनता वह राजपथ? जनता की आवाज.
गौरैया के घोंसले, पड़े तुड़ाये चोंच.
कुरसी को आई नहीं, कोई कहीं खरोंच.
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ