दोहे
मुझको भी बिखरे मिले, बीच डगर पर शूल,
पर हारा मैं भी नहीं, वहीं उगाये फूल।१।
बीस भुजा दस शीश थे, आलय आलीशान।
मगर कहो लंकेश का,टिका कहाँ अभिमान।२।
भूषण मेरा आचरण, स्वाभिमान है आन।
भीति लोकापवाद से, मिले न चाहे मान।३।
देख उदासी दीन की, दिल ने कहा पुकार।
दाता की कारीगरी, हुई समझ के पार ।४।
ठिठुर-ठिठुर कर ठंड में, बैठा है फुटपाथ ।
विवश निहारे शून्य को, कौन बढ़ाये हाथ ।५।
खुद के आँसू से बुझा, अपने मन की आग ।
जीवन तो संघर्ष है, तू इससे मत भाग ।६।
सुंदर उपवन वह जहाँ, भाँति भाँति के फूल।
जाने हर मानव मगर, फिर भी करता भूल।७।
सुर-दानव दोऊं यहीं, विचरें निज-निज हेत।
पर-उपकारी देव सम, खलु परपीड़ा देत ।८।
थोड़ी सी दौलत मिली, नहीं जमीं पर पैर।
मूरख तू जाने नहीं, जीवन है इक सैर।९।
मानुष आगे बढ़ सदा, चाहे छू ले चाँद ।
पर खींची जो लखन ने, वह रेखा मत फाँद।१०।
– नवीन जोशी ‘नवल’