दोहे
गीत सुवासित हो रहें,मन है भाव विभोर।
बीत रही है जिन्दगी, खुशियाॅं हैं चहुॅं ओर।।
व्यर्थ कभी जातें नहीं,नेक हमारे काम।
धर्म युद्ध में पार्थ को,समझातें है श्याम।।
खुशियों का जड़ खोजता,भटक रहा संसार।
गीता में प्रभु ने कहा, कर्म जगत आधार।।
कौन कहाॅं अब सोचता,जल बिन तड़पी मीन।
दुख कागज ही देखता,कलम हुई गमगीन।।
विधान के सब फैंसले,उसका ही कानून।
बंधन में भी जीव को, मिलता सदा सुकून।।
इच्छाओं के दास हम,पानी सा किरदार।
भीग चुका है देखिए, कागज की दीवार।।
वृक्ष बाॅंझ होतें नही, करें धरा श्रृंगार।
मौसम के अनुकूल ही,आए सदा बहार।।
कौतूहल से आज भी, सोच रहा मन मौन।
गठरी अपनी बाॅंधकर, चला गया है कौन।।
घना कुहासा मौन का, बर्फीली सी याद।
अट्टहास करने लगा, अन्तर्मन का नाद।।
नवनीत कमल
जगदलपुर छत्तीसगढ़