दोहे
दोहे
हाथ जेब भीतर रहे, कानों में है तेल
नौ दिन ढाई कोस का वही पुराना खेल .
छिपने की बातें सभी, छपने को तल्लीन
सच मरियल सा हो गया झूट मंच आसीन.
बचपन- पचपन सब हुए रद्दी और कबाड़,
आध – अधूरे लोग हैं करते फ़िरें जुगाड़ .
क्या नेता क्या यूनियन सबके तय हैं दाम,
जीते हैं, पर मर चुके, इतने ओछे काम.
भाषा संकर हो गई ऐसे योग-प्रयोग ,
आसपास दुर्गंध है , फूले फलते रोग.
फिर-फिर कर आती रही एकलव्य की याद ,
उसी अंगूठे के लिए, गुरू की अब फरियाद.
घर -भेदी को ही सदा मिलता आया ताज,
ना था, था ना फ़ंस गया,घर की फूट समाज.
पहर ओढ न चल सके, घर से बेटी आज,
अब भी द्रोणाचार्य-सा, चुप है सभ्य समाज.
बिना किए का भोगते ,जीवन भर यह दंस,
तिमिर सभा में निकष पर, ये सूरज के अंश.
कहीं केवड़ा फूलता कहीं कुरील के वंश,
शर्त यही निर्माण की, पहले हो विध्वंस.।।
( प्रवक्ता.काम)
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