दोहे एकादश…
नैनों में प्रिय तुम बसे, अधर तुम्हारा नाम।
एक इशारा तुम करो, चलूँ तुम्हारे धाम।।१।।
धंधा करते झूठ का, दावे करते नेक।
सिर्फ एक या दो नहीं, देखे यहाँ अनेक।।२।।
घर-घर एसी लग रहे, बढ़ा धरा का ताप।
हलक-अधर सब सूखते, कौन हरे संताप।।३।।
दादुर सँकरे कूप में, फुदक-फुदक इतराय।
पंछी उड़कर व्योम तक, पार समंदर जाय।।४।।
अपने अपने ना रहे, घर में रहकर गैर।
रिश्ते नाजुक मर रहे, कौन मनाए खैर ।।५।।
पड़ें नज़र के सामने, किस मुँह शोशेबाज।
झूठी शान बघारते, आए जिन्हें न लाज।।६।।
अहंकार के वृक्ष पर, फलें नाश के फूल।
हित यदि अपना चाहते, काटो उसे समूल।।७।।
निंदा रस में लिप्त जो, भरता सबके कान।
खुलती इक दिन पोल जब, क्या रह जाता मान ।।८।।
माँ को बेघर कर गए, खूब मचाकर क्लेश।
घर पुश्तैनी बेचकर, सुत जा बसे विदेश।।९।।
कैसे उनको मान लें, निर्मल शुद्ध प्रकार।
घुट्टी में जिनको मिले, केवल असत् विचार।।१०।।
गली-गली में देख लो, चलते सीना तान।
संस्कारों की धज्जियाँ, उड़ाते नौजवान।।११।।
© डॉ.सीमा अग्रवाल,
मुरादाबाद ( उ.प्र.)