दोहा
परनिंदा तो खूब हो ,अपना हो गुणगान ।
तन-मन में मिसरी घुले ,चाह रहे हैं कान ।।1
साधू संन्यासी कई ,साध रहे हैं योग ।
रहे बचे कुछ संत जो ,करते वैभव भोग ।।2
चाटुकार जग में बना ,सब दिन ही सिरमौर ।
जिह्वा मधुरस घोलती ,कथनी- करनी और ।।3
मोबाइल सुविधा बनी ,नित्य सूचना हेतु ।
अपराधों के जाल को,यह सुविधा का सेतु ।।4
नहीं नाचते दिख रहे ,अब जंगल में मोर ।
घर-बस्ती तक आ गए ,खूनी आदमखोर ।।5
कौड़ी-कौड़ी जोड़ के ,जुटा लिया सामान ।
रिक्त रहा उर प्रेम से ,बनता मन धनवान ।।6
दिन पर दिन बढ़ने लगे ,दुनिया में जंजाल ।
घिरे अर्थ के जाल में ,धनपति या कंगाल ।।7
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’शोहरत
स्वरचित