दोहा
दोहा….
महक रहे हैं देखिए, उपवन के वे फूल।
मान रहे थे तुम जिसे, कांटे जैसा शूल।। 1
जेब खोल हक मांगना, साहब का अंदाज़।
बोल रहा निर्बल खड़ा, हमको आती लाज।। 2
सठ से सठता है उचित, भलमानस से नीक।
उल्टी मति जिसकी हुई, उसकी त्यौरी फीक।।3
पुरवा के झकझोर से , गलन बढ़ा चहुओर।
निहुरे-निहुरे चल रहे, जीव सकल बिन शोर।। 4
चढता पारा शीश पर, सुन नेता की बोल।
पहने ओढ़े फिर रहे, भांति-भाँति की खोल।। 5
दण्ड मिले पापी सदा, पालन हो आदेश।
न्यायालय न्यायी बने, जन-जन में संदेश।। 6
नफ़रत, हिंसा, द्वेष की, फैल रही है आग।
धूमिल समरसता हृदय, लगा रही है दाग।। 7
परदे के पीछे हुआ, बड़ा-बड़ा है खेल।
नहीं सुरक्षित रह गया, वह तिहाड़ का जेल।।8
सीधी जनता देखती, मुख शासन की ओर।
साहब हल्ला कर रहे, लूट ले गया चोर।। 9
लगा सड़क पर होर्डिंग, बढ़ता चलन प्रचार।
दिखा रहे गुणवान अति, जनता करे विचार।10
जन्म हुआ जिसका यहाँ, उसका है यह देश।
लेकिन कहना मत कभी, अच्छा लगे विदेश।11
हरी-भरी धरती रहे, हरे खेत खलिहान।
जीव-जन्तु सब ही करें, खुशहाली का गान।12
अन्तस् में हो छल-कपट, मुँह में मीठी खीर।
सावधान इनसे सदा, घातक अतिशय तीर।।13
अगर हितैषी बन रहे, दुर्जन लिए प्रमाण।
साध रहे हैं मानिए, तरकस से चुन बाण।।14
द्वेष, घृणा का भाव मन, रखकर करें प्रणाम।
अच्छा आता है नहीं, संगति का परिणाम।।15
खाल खीचते बाल की, रखते ओछी सोंच।
लग जाता है बदन पर, इनके गहरी खोंच।। 16
करता हो राजा अगर, जनमानस का ध्यान।
स्वाभाविक फिर मानिए, राजा का गुणगान।17
नहीं देश से मानना, उत्तम कोई धर्म।
करना हमको चाहिए, तन्मय अपना कर्म।।18
त्याग,समर्पण,प्यार का, और कहाँ है ठाँव।
लंदन से उत्तम लगे, अपना प्यारा गाँव।। 19
जग में वे नर श्रेष्ठ हैं, जो करते उपकार।
इनका होना चाहिए, जगह-जगह सत्कार।। 20
आत्मश्लाघा में करें, लेकर माइक शोर।
श्वान करें नित वंदना, इनका उठकर भोर।। 21
(स्वरचित )
डाॅ. राजेन्द्र सिंह “राही”
(बस्ती उ. प्र.)