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23 May 2021 · 3 min read

दोहा छंद “वर्षा ऋतु”

(दोहा छंद)

ग्रीष्म विदा हो जा रही, पावस का शृंगार।
दादुर मोर चकोर का, मन वांछित उपहार।।

आया सावन झूम के, मोर मचाये शोर।
झनक झनक पायल बजी, झूलों की झकझोर।।

मेघा तुम आकाश में, छाये हो घनघोर।
विरहणियों की वेदना, क्यों भड़काते जोर।।

पिया बसे परदेश में, रातें कटती जाग।
ऐसे में तुम आ गये, भड़काने को आग।।

उमड़ घुमड़ के छा गये, अगन लगाई घोर।
शीतल करो फुहार से, रे मेघा चितचोर।।

पावस ऋतु में भर गये, सरिता कूप तड़ाग।
कृषक सभी हर्षित भये, मिटा हृदय का राग।।

दानी कोइ न मेघ सा, कृषकों की वह आस।
सींच धरा को रात दिन, शांत करे वो प्यास।।

मेघ स्वाति का देख के, चातक हुआ विभोर।
उमड़ घुमड़ तरसा न अब, बरस मेघ घनघोर।।
*** *** ***

दोहा छंद विधान –

दोहा छंद एक अर्द्धसम मात्रिक छंद है। यह द्विपदी छंद है जिसके प्रति पद में 24 मात्रा होती है। प्रत्येक पद 13, 11 मात्रा के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है। 13 मात्रा के चरण को विषम चरण कहा जाता है और 11 मात्रा के चरण को सम चरण कहा जाता है। दूसरे और चौथे चरण यानी सम चरणों का समतुकान्त होना आवश्यक है।

विषम चरण — कुल 13 मात्रा (मात्रा बाँट = 8+2+1+2)
सम चरण — कुल 11 मात्रा (मात्रा बाँट = 8+ताल यानी गुरु+लघु)

अठकल यानी 8 में दो चौकल (4+4) या 3-3-2 हो सकते हैं। 2 में गुरु वर्ण या दो लघु वर्ण हो सकते हैं।
चौकल और अठकल के निम्न नियम हैं जो अनुपालनीय हैं।

चौकल – (1) प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है। ‘करो न’ सही है जबकि ‘न करो’ गलत है।
(2) चौकल में पूरित जगण जैसे सरोज, महीप, विचार जैसे शब्द वर्जित हैं।

अठकल – (1) प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द समाप्त होना वर्जित है। ‘राम कृपा हो’ सही है जबकि ‘हो राम कृपा’ गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है। यह ज्ञातव्य हो कि ‘हो राम कृपा’ में विषम मात्रिक शब्द के बाद विषम मात्रिक शब्द पड़ रहा है फिर भी लय बाधित है।
(2) 1-4 और 5-8 मात्रा पर पूरित जगण शब्द नहीं आ सकता।

जगण प्रयोग –

(1) चौकल की प्रथम और अठकल की प्रथम और पंचम मात्रा से पूरित जगण शब्द प्रारम्भ नहीं हो सकता।
(2) अठकल की द्वितीय मात्रा से जगण शब्द के प्रारम्भ होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है।
(3) अठकल की तृतीय और चतुर्थ मात्रा से जगण शब्द प्रारम्भ हो सकता है।

दोहे का शाब्दिक अर्थ है- दुहना, अर्थात् शब्दों से भावों का दुहना। इसकी संरचना में भावों की प्रतिष्ठा इस प्रकार होती है कि दोहे के प्रथम व द्वितीय चरण में जिस तथ्य या विचार को प्रस्तुत किया जाता है, उसे तृतीय व चतुर्थ चरणों में सोदाहरण (उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के साथ) पूर्णता के बिन्दु पर पहुँचाया जाता है, अथवा उसका विरोधाभास प्रस्तुत किया जाता है।

वर्ण्य विषय की दृष्टि से दोहों का संसार बहुत विस्तृत है। यह यद्यपि नीति, अध्यात्म, प्रेम, लोक-व्यवहार, युगबोध- सभी स्फुट विषयों के साथ-साथ कथात्मक अभिव्यक्ति भी देता आया है, तथापि मुक्तक काव्य के रूप में ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध रहा है। अपने छोटे से कलेवर में यह बड़ी-से-बड़ी बात न केवल समेटता है, बल्कि उसमें कुछ नीतिगत तत्व भी भरता है। तभी तो इसे गागर में सागर भरने वाला बताया गया है।

दोहा छंद की संरचना में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। जैसे –

1- दोहा मुक्त छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।

2- श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होनी चाहिए।

3- दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग यथा संभव न करें। औ’ वर्जित ‘अरु’ स्वीकार्य।

4- दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।

5- दोहे में कारक (ने, को, से, के लिए, का, के, की, में, पर आदि) का प्रयोग कम से कम हो।

6- हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि, मुस्कानि, होय, जोय, तोय जैसे देशज क्रिया-रूपों का उपयोग यथासंभव न करें।

7- दोहा छंद में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।

दोहा छंद के विधान पर एक दोहा:-

“अठकल पर वाचिक रगण, अठकल गाल प्रदत्त।
तेरह ग्यारह के चरण, दोहा चौबिस मत्त।।”

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया

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