दोहा पंचक. . . . . हार
दोहा पंचक. . . . . हार
जीवन में हर हार का, अर्थ नहीं है हार ।
कभी – कभी तो जीत का, हार बने आधार ।।
कभी – कभी इंसान जब, खुद से जाता हार ।
करता अपने भाग्य से, शिकवे कई हजार ।।
हार गर्भ में जीत है, जीत गर्भ में हार ।
हार-जीत में ही छुपा, जीवन का शृंगार ।।
क्षणिक हार पर व्यर्थ है, करना करुण विलाप ।
नहीं जरूरी जीत से, मिटें मौन संताप ।।
हार कभी होती नहीं, दम्भी को स्वीकार ।
अनुदिन उसके हृदय में, जीवित हो प्रतिकार ।।
सुशील सरना / 28-11-24