दोहा पंचक. . . . नवयुग
दोहा पंचक. . . . नवयुग
दूषित हो न परम्परा, देना इस पर ध्यान।
धारित तन पर हों सदा, मर्यादित परिधान।।
मानव मन कब मानता, नियमों की जंजीर ।
हर बंधन को तोड़ना, उसकी है तासीर ।।
कितना भी स्वच्छंद हो ,नया जमाना आज ।
वक्त पुराना आज भी, चाहे सकल समाज ।।
मर्यादा का हो रहा , खुलेआम उपहास ।
युवा वर्ग अब कर रहा, अल्प वस्त्र में रास ।।
बदल गई है प्यार की, परिभाषा अब यार ।
काम वासना से भरा, वर्तमान का प्यार ।।
सुशील सरना / 1-6-24