दोहा त्रयी. . .
दोहा त्रयी. . .
अवगुंठन में काल के, लुप्त हुए सब हर्ष ।
जरा अवस्था देखती, मुड़ -मुड़ बीते वर्ष ।।
पीत पात सी काँपती, जरा काल में देह ।
विगत काल को याद कर , अविरल बहता मेह ।।
अमिट लिखा हर भोर के, माथ यही पैगाम ।
ढलने से रुकती नहीं, इस जीवन की शाम ।।
सुशील सरना / 13-5-24