दोहा छंद विधान
दोहा छंद विधान
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दोहा हिंदी साहित्य का एक बहु प्रयुक्त एवं लोकप्रिय छंद है।इस छंद का प्रयोग सभी प्रमुख कवियों द्वारा किया गया है।दोहा छंद अपभ्रंश से यात्रा करते हुए हिंदी तक पहुँचा है।इस यात्रा क्रम में अनेक पडावों के माध्यम से निखरा आधुनिक रूप काव्य प्रेमियों को आह्लादित करता है।
विधान –
दोहा एक अर्धसम मात्रिक छंद है।प्रत्येक छंद की भाँति इस छंद में चार चरण होते हैं।इसके प्रथम और तृतीय चरण को विषम एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण को सम चरण कहा जाता है।इसके प्रत्येक पद में 24 (13+11)मात्राएँ होती हैं।विषम चरणों में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों में 11-11 मात्राएँ होती हैं।इस छंद के विषम चरणों का आरंभ एकल स्वतंत्र शब्द ,जिसमें जगण (।ऽ।) हो, से करना वर्जित माना जाता है।विषम चरणों के अंत में यदि नगण ( ।।। ) या रगण ( ऽ।ऽ) हो तो छंद में प्रवाहमयता बनी रहती है।सम चरणों का अंत सदैव दीर्घ लघु(ऽ।) से ही होता है।
दोहे के प्रत्येक चरण में मात्र मात्रा भार पूर्ण कर देने से दोहा सृजन संभव नहीं होता, अर्थात प्रथम और तृतीय चरण में 13-13 मात्राएँ द्वितीय और चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएँ पूर्ण कर देने से दोहे की रचना नहीं हो जाती।इसके लिए यह आवश्यक है कि मात्राओं की पूर्णता के साथ- साथ लयात्मकता भी हो।यदि मात्राएँ पूर्ण हैं और प्रवाहमयता का अभाव है तो दोहा नहीं बनता है।अतः दोहे की रचना के लिए मात्रा भार और लय दोनों का ध्यान रखना चाहिए।
छंद शास्त्र के मर्मज्ञ कवि जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ यद्यपि लयात्मकता को सर्वोपरि मानते हैं तथापि इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘छंद प्रभाकर’ में निम्नलिखित व्यवस्था का उल्लेख भी किया है ।
उनके अनुसार त्रयोदशकलात्मक विषम चरण की बनावट के आधार पर दोहे दो प्रकार के होते है-
विषमकलात्मक एवम् समकलात्मक ।
विषमकलात्मक दोहा उसे कहते है, जिसका प्रारम्भ (लघु गुरु), (गुरु लघु) अथवा (लघु लघु लघु) से हो । इसकी बुनावट 3+3+2+3+2 के हिसाब से होती है । इसका चौथा समूह जो त्रिकल का है उसमें लघु गुरु अर्थात 12 रूप नहीं आना चाहिए अर्थात 12 त्रिकल रूप + 2 द्विकल ही यमाता या यगण रूप सिद्ध होता है तभी कवि ‘भानु’ ने “राम राम गाव भाई” के स्थान पर “राम राम गावहु सदा ” या “राम राम गावौ सदा” का प्रयोग ही उचित माना है।
कवि ‘भानु’ के अनुसार समकलात्मक दोहा उसे कहते है जिसका प्रारम्भ (लघु लघु गुरु), (गुरु गुरु) अथवा (लघु लघु लघु लघु) से हो। इसकी बुनावट 4+4+3+2 की होती है अर्थात चौकल के पीछे चौकल फिर त्रिकल तद्पश्चात द्विकल आना चाहिए इसमें भी त्रिकल का 12 अर्थात लघु गुरु वाला रूप त्याज्य है जैसे कि “सीता सीता पती को” के स्थान पर “सीता सीतानाथ को” उपयुक्त है अर्थात यह सिद्ध होता है कि इसमें भी तृतीय त्रिकल + चतुर्थ द्विकल (3+2) मिला कर यगण रूप नहीं होना चाहिए।
मात्रा भार
छंद बद्ध रचना के लिए मात्रा भार का ज्ञान होना आवश्यक होता है।मात्रा भार की गणना दो आधारों पर की जाती है-( 1)वर्णिक (2) वाचिक । दोहा छंद में मात्राओं की गणना वर्णिक आधार पर की जाती है,इसमें वर्णों की मात्राओं को गिना जाता है, जबकि गीतिका, गज़ल जैसे छंदों में वाचिक आधार पर। यदि रचनाकार को मात्रा भार गणना की सही और सटीक जानकारी नहीं होती तो शुद्ध छांदस रचना संभव नहीं हो पाती। नवांकुरों को ध्यान में रखते हुए मात्रा भार की गणना की संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयास किया जा रहा है-
1. समस्त हृस्व स्वरों की मात्रा 1 होती है,जिसे शास्त्रीय भाषा में लघु कहा जाता है । अ,इ,उऔर ऋ की मात्रा 1 (लघु) होती है।
2 .सभी दीर्घ स्वरों की मात्रा 2 होती है,जिसे पारिभाषिक शब्दावली में दीर्घ कहते हैं।आ,ई,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,अं और अः की मात्रा दीर्घ होती है।
3 .क से ह तक के व्यंजनों की मात्रा 1 होती है। यदि व्यंजनों के साथ हृस्व स्वर- अ,इ,उ और ऋ की मात्रा का योग किया जाता है तो भी उनका मात्रा भार 1 ही रहता है।संयुक्त व्यंजन क्ष ,त्र एवं ज्ञ का मात्रा भार 1 ही होता है यदि इनका प्रयोग शब्द के आरंभ में होता है;जैसे –
क्षमा =12, षडानन =1211, श्रम =11
यदि इन संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग शब्द के बीच में या अंत में होता है तो संयुक्त व्यंजन के पूर्व का शब्द दीर्घ हो जाता है; जैसे-
यज्ञ= 21, कक्षा= 22, सक्षम= 211,क्षत्रिय =211
4.यदि व्यंजनों के साथ दीर्घ स्वर-आ,ई,ऊ,ए,ऐ,ओ, और अं,अः प्रयुक्त
होने पर मात्रा भार 2 होता है।यदि गुरु वर्ण के साथ अनुनासिक/ अनुस्वार का प्रयोग होता है तो मात्रा भार 2 ही रहता है।
5.किसी भी वर्ण के साथ अनुनासिक का प्रयोग करने से मात्रा भार में कोई परिवर्तन नहीं होता; जैसे-
पहुँच= 111, माँ- 2, छाँव-21
6.जिन शब्दों के पूर्व में अर्ध व्यंजन का प्रयोग होता है उस अर्ध व्यंजन की गणना नहीं की जाती है; जैसे-
प्यार =21, स्नेह =21, क्लेश =21
यदि अर्ध वर्ण का प्रयोग दो वर्णों के बीच में होता है तो वह पूर्ववर्ती वर्ण को दीर्घ कर देता है अगर पूर्ववर्ती वर्ण हृस्व है; जैसे-
शब्द = 21,अच्छा= 22, मिट्टी= 22
अगर अर्ध वर्ण का प्रयोग ऐसे किसी वर्ण के पश्चात होता है जो पहले से ही दीर्घ है तो वह दीर्घ ही रहता है और पश्चातवर्ती अर्ध वर्ण कोई प्रभाव नहीं डालता अर्थात वह दीर्घ ही रहता है; जैसे-
ऊर्जा =22, ऊर्मि = 21, कीर्तन = 211, प्रार्थना= 212
7. कुछ अपवादात्मक स्थितियाँ भी होती है,जहाँ अर्ध व्यंजन पूर्ववर्ती वर्ण के साथ संयुक्त होने के बजाय पश्चातवर्ती वर्ण के साथ जुड़कर उसे दीर्घ बना देता है।ऐसा मात्र शब्द में अर्ध वर्ण के उच्चारण के कारण होता है; जैसे-
तुम्हारे, तुम्हें , जिन्हें, जिन्होंने, कुम्हार, कन्हैया आदि। इन शब्दों में म् का उच्चारण हा के साथ होता है न कि तु के साथ ।
8. हिंदी में कुछ शब्दों जैसे- स्नान,स्मित, स्थाई,ऊर्जा, ऊष्मा आदि के लिखित रूप उच्चारणगत रूप में अंतर होता है या यूँ कहें कि लोगों के द्वारा किए जाने वाले अशुद्ध उच्चारण के कारण वाचन में मात्रा ठीक परंतु लेखन में कम ज्यादा होने लगता है।चूँकि मात्राओं की गणना लेखन रूप के आधार पर की जाती है।अतः ऐसे शब्दों का प्रयोग करते समय पूर्ण सावधानी बरतें और एक बार मात्रा भार की गणना अवश्य करें।
उर्दू एवं हिंदी के कुछ बहुप्रचलित शब्दों का जब दोहे में प्रयोग करते हैं तो उनका मात्रा भार कम- अधिक होने लगता है तथा कई बार उनके प्रयोग से विधान का उल्लंघन होने लगता है अर्थात 11 वीं मात्रा दीर्घ हो जाती है;जैसे- चेहरा , मेहनत दोस्ती ,आस्था आदि।
मेहनत का फल प्राप्त हो,चाहे देर सबेर।
ईश्वर के घर देर है, कभी नहीं अंधेर।।
उपर्युक्त दोहे के प्रथम चरण में 14 मात्रिक भार है; लेकिन दोहे को पढ़ने पर लय भंग न होने के कारण यह प्रतीत नहीं होता कि इसमें कोई त्रुटि है ।
रखिए सबसे दोस्ती,रख नफरत को दूर।
जीवन जीने का मजा, आएगा भरपूर।।
इस उदाहरण में पहले चरण में मात्रिक भार -12 है तथा 11 वीं मात्रा भी दीर्घ हो रही है। दोहा विधान में 11 वीं मात्रा का दीर्घ होना उचित नहीं माना जाता, क्योंकि लय भंग होने लगती है।
9. मात्रा-पूर्ति के लिए ‘न’ के स्थान पर ‘ना’ के प्रयोग से बचने का प्रयास किया जाना चाहिए। हिंदी में ‘ना’ जैसा कोई शब्द नहीं है। हाँ, उर्दू में ना उपसर्ग का प्रयोग होता है, जिससे नालायक, नाउम्मीद, नामुराद जैसे शब्दों का निर्माण होता है।
तुकांत –
प्रत्येक छंद में तुकांत का पालन एक निश्चित व्यवस्था के अंतर्गत करना होता है।दोहा छंद, जिसमें द्वितीय और चतुर्थ चरण के अंत में तुक का विधान होता है, का पालन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है –
तुकांत को समझने के लिए एक दोहा छंद का उदाहरण लिया जा सकता है-
अच्छाई बैठी यहाँ,गुमसुम और उदास।
घूम बुराई कर रही,खुलेआम परिहास ।।
यहाँ तुकांत को समझने के लिए द्वितीय और चतुर्थ चरण के अंतिम शब्द दृष्टव्य हैं-
उदास = उद् + आस
परिहास =परि+ ह् +आस
इन दोनों चरणों के अंत में आस सामान्य रूप में विद्यमान है,जो कि प्रत्येक परिस्थिति में अपरिवर्तनीय है।इसे अचर कहा जा सकता है।इनके पूर्व आने वाले व्यंजन द् और ह् परिवर्तनीय होते है ,जिन्हें चर कहा जा सकता है ।
तुकांत का प्रयोग करते समय ऐसे शब्दों का चयन किया जाना चाहिए जो कि चर और अचर दोनों ही दृष्टियों से पृथक हों।
मात्र शब्द और उसका अर्थ अलग होने से तुकांत छंद में आनंद और प्रभविष्णुता में वृद्धि नहीं करते।उदाहरणार्थ दोहे के एक चरण में यदि वेश और दूसरे में परिवेश शब्द का तुक के रूप में प्रयोग करने से चर परिवर्तित नहीं होता-
वेश = व् + एश
परिवेश= परि+ व् +एश
इसी तरह अन्य शब्दों को लिया जा सकता है; जैसे –
मान, सम्मान, अपमान ; देश , विदेश, परदेश; दान , अवदान; ज्ञान, विज्ञान आदि
इस तरह के शब्दों का तुकांत के रूप प्रयोग करने से बचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि ऐसे शब्दों में चर और अचर मूलतः एक ही होते हैं।अंतर मात्र शब्द के साथ जुड़े उपसर्ग के कारण दृष्टिगत होता है।ऐसे शब्दों का तुकांत के रूप में करने से न तो काव्यानंद में अभिवृद्धि होती है और न रोचकता में।
ध्यातव्य है कि चरणांत में तुक का विधान एक जैसा ही रखना उचित होता है।वर्णगत भिन्नता सौंदर्य को प्रभावित करती है तथा छंद विधान के अनुरूप भी नहीं होती; जैसे – यदि दोहे प्रथम चरण के अंत में तुक ‘शेष’का प्रयोग किया गया है तो दूसरे पद के अंत में ‘वेश’ शब्द द्वारा तुक नहीं मिलाया जा सकता क्योंकि एक का अचर- एष है जबकि दूसरे का एश।दोनों पर्याप्त भिन्न हैं। इसी तरह अन्य शब्दों – दोष, जोश जैसे शब्दों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है।
तुकांत के जिन शब्दों के साथ अनुनासिक या अनुस्वार का प्रयोग होता है उनके लिए भी ऐसे ही किसी शब्द का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है जिसमें अनुनासिक या अनुस्वार हो; जैसे – दोहे के द्वितीय चरण के अंत में यदि ‘बूँद’ शब्द तुक के रूप में प्रयुक्त है तो चतुर्थ चरण के अंत में मूँद जैसे किसी शब्द का प्रयोग करना होता है।’बूँद’ का तुक ‘कूद’ से नहीं मिलाया जा सकता।
दोहों के प्रकार –
प्रत्येक पद में गुरु लघु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहों के 23 प्रकार निर्धारित किए गए हैं, जो कि निम्नवत हैं-
1.भ्रमर दोहा – 22 गुरु वर्ण और 4 लघु वर्ण
कोई भी जाता नहीं,दाता खाली हाथ।
आता तेरे द्वार तो,पाता तेरा साथ।।
2.सुभ्रमर दोहा- 21गुरु वर्ण और 6लघु वर्ण
आते-जाते वेधते,हैं नज़रों के तीर।
काया बैरी हो गई ,आओ मेरे वीर।।
3. शरभ दोहा- 20 गुरु वर्ण और 8 लघु वर्ण
सच्चाई के साथ का,अच्छा मिला इनाम।
बच्चे भूखे घूमते,छिना हाथ से काम।।
4. श्येन दोहा- 19 गुरु वर्ण और 10 लघु वर्ण
बच्चों के कंधे झुके, लाद बोझ उम्मीद।
भावी पीढ़ी के लिए, यह है नहीं मुफीद।।
5.मण्डूक दोहा- 18 गुरु वर्ण और 12 लघु वर्ण
राष्ट्र ध्वजा की शान में, गाते सारे गीत।
देश भक्ति की गूँज है,सबकी सबसे प्रीत।।
6. मर्कट दोहा-17 गुरु वर्ण और 14 लघु वर्ण
दीवारों के घेर को,कहते मात्र मकान।
मिलता है बस गेह में,प्यार और सम्मान।।
7.करभ दोहा- 16 गुरु वर्ण और 16 लघु वर्ण
करनी जिसको आ गईं ,बातें लच्छेदार।
छुप जाते कुछ देर को,उसके दोष हज़ार।।
8.नर दोहा- 15 गुरु वर्ण और 18 लघु वर्ण
माता मीठी मधु सरिस,बापू कड़वी नीम।
दोनों हरते रोग को,बनकर सदा हकीम।।
9. हंस दोहा -14 गुरु वर्ण और 20 लघु वर्ण
बेघर है हर हौसला, डर के उगे बबूल।
ताज धरा सिर कष्ट का,चुभते रहते शूल।।
10. गयंद दोहा- 13 गुरु वर्ण और 22 लघु वर्ण
क्षणभंगुर इस देह को,मानव समझे शान।
होकर मद में चूर वह, चलता सीना तान।।
11. पयोधर दोहा- 12 गुरु वर्ण और 24 लघु वर्ण
आकर मर्दन कालिया, करो कृष्ण भगवान।
अब ज़हरीले हैं अधिक, विषधर से इंसान।।
12. बल दोहा- 11 गुरु वर्ण और 26 लघु वर्ण
पान भ्रमर नर नित करें,राम नाम मकरंद।
तुलसी मानस पुष्प वह,जिसकी गंध अमंद।।
13. पान दोहा- 10 गुरु वर्ण और 28 लघु वर्ण
पवनपुत्र विनती सुनहु,शरण मोहि निज लेहु।
राम-रसायन चख सकूँ,यही एक वर देहु।।
14. त्रिकल दोहा- 9 गुरु वर्ण और 30 लघु वर्ण
कबहुँ न डर मन लाइए,करिए श्रम धरि ध्यान।
मिलत जगत में श्रमहिं नित,सबहिं मान सम्मान।।
15. कच्छप दोहा- 8 गुरु वर्ण और 32 लघु वर्ण
पंथ सुगम सोचत फिरत,चलत न पग मग हेत।
तन छीजत ज्यों मुष्टि से,फिसलत हर पल रेत।।
16. मच्छ दोहा- 7 गुरु वर्ण और 34 लघु वर्ण
नटवर नागर प्रभु सुनहु,बसहु हृदय मम आय।
कृपा सिंधु तव दरस बिन, भक्त रहा मुरझाय।।
17. शार्दूल दोहा- 6 गुरु वर्ण और 36 लघु वर्ण
सुपथ चलत सुमिरत प्रभुहिं,करत काज नित नेक।
जगत बहुत थोड़े मनुज,जिनके विमल विवेक।।
18.अहिवर दोहा- 5 गुरु वर्ण और 38 लघु वर्ण
बिपति हरत धीरज सबहिं,करत मनहिं बेचैन।
हिय तड़पत विरहिन सरिस,अश्रु बहत दिन रैन।।
19. व्याल दोहा- 4 गुरु वर्ण और 40 लघु वर्ण
घटत देखि धन कृपण उर ,बढ़त रहत नित पीर।
जिअत जगत महँ हरस बिन, तन धारत नहिं चीर।।
20. विडाल दोहा- 3 गुरु वर्ण और 42 लघु वर्ण
स्वर्ग नरक इहि धरणि पर ,करमन कर फल तात।
करम करहु शुचि प्रभुहिं भजि,तबहिं बनत हर बात।।
21. श्वान दोहा- 2 गुरु वर्ण और 44 लघु वर्ण
मदिर नयन अरुणिम अधर,कृश कटि मधुरिम चाल।
दरस परस हिय उमग धरि ,झुकत चरण महिपाल।।
22. उदर दोहा- 1 गुरु वर्ण और 46 लघु वर्ण
चलत फिरत बिछुड़त जगत,कहत खिलत शुचि करम।
निशि दिन सुमिरत पद कमल, मिलत मोक्ष यह मरम।।
23. सर्प दोहा- 0 गुरु वर्ण और 48 लघु वर्ण
पियत अधम नित अघ गरल,जिअत जगत तजि धरम।
दहन करत सत सुख हरत, जड़मति करत न शरम।।
उपर्युक्त दोहों के शिल्प विधान से स्पष्ट है कि कुछ दोहे तो स्वाभाविक रूप में अनायास शिल्पबद्ध हो जाते हैं परंतु कुछ को सायास भाव के साथ-साथ शिल्प में ढालना पड़ता है और ये अतीव श्रमसाध्य होता है।
डाॅ. बिपिन पाण्डेय