दोस्ती
“दोस्ती”
आज मौसम की खुशनुमा समीर के मद्धिम झोकों की छुअन से लहलहाते खेतों के बीच दो पीतवर्णी पुष्पगुच्छ ऐसे प्रतीत हो रहे हैं जैसे रूप, रस, गंध की समानता उन्हें अलग-अलग होते हुए भी एक होने का अहसास दिला रही हो। कनकपुष्प देह पर परिलक्षित बूँदों के मुक्तक आज फिर मुझे किशोरी के साथ होने का अहसास दिला रहे थे।
बचपन में मेरे लिए “दोस्ती” शब्द मात्र धमा-चौकड़ी, मौज़-मस्ती का पर्याय था वही “दोस्ती” शब्द कॉलेज दिनों में अपनेपन के आवरण में पलती परवाह, एक-दूसरे के लिए आत्मीय अहसास और प्यार के रेशमी गठबंधन से कम नहीं था।
इंजीनियरिंग का एनटरेंस एग्ज़ाम पास करने के बाद मुझे जयपुर के जगतपुरा स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीशन मिल गया। आकर्षक पर्सनलिटी व शायराना अंदाज़ के कारण सीनियर बॉयज़ से बड़ी आसानी से मेरी दोस्ती हो गई। जिसकी वजह से मैं रैगिंग से लगभग बचा रहा। एक दिन हम शरारती बॉयज़ अपने कॉलेज़ के गार्डन में घनेरे पेड़ की मज़बूत शाखाओं पर चढ़े लंगूर की तरह उछल-कूद कर रहे थे तभी हमारी नज़र गुलाबी आगोश में सिमटी नीली स्कूटी पर सवार किशोरी पर पड़ी। गौरवर्णी किशोरी की सादगी ही उस बेचारी की रैगिंग का कारण बन गई। पेड़ से छलांग लगाकर सीनियर्स की टोली ने किशोरी की स्कूटी को चारों तरफ़ से घेर कर उसे अच्छा-खासा परेशान कर दिया। हमारे चंगुल से अपनी जान बचाने के लिए सौ उठ्ठी-बैठी करने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था। ज़मीन पर गड़ी उसकी विशाल आँखों से छलकते आँसुओं ने मेरे कोमल हृदय को द्रवीभूत कर दिया। उसे बचाने के नज़रिए से मैंने उसके समक्ष गाने का ऑफर रख दिया। कुछ देर स्वयं की मन:स्थिति को सँभालते हुए उसने सहमी आवाज़ में मुगल-ए-आज़म फ़िल्म का गाना “बेकश पे करम कीजिए सरकारे मदीना”… गाकर हमारे शिकंजे की ज़ज़ीरों में जकड़े होने का हमें अहसास दिला दिया। हम अपनी गुस्ताख़ी पर रहमदिली का लेबल लगाने के लिए उसे कैंटीन ले गए। कॉफ़ी आने तक मैंने उसकी गुम हुई हँसी को वापस लाने के लिए शायराना अंदाज़ में उसकी सादगी की तारीफ़ करते हुए कहा-
सादगी गहना बना चुप साध बैठे आप हैं।
मदिर प्याले सोमरस भर साथ बैठे आप हैं।।
पुष्पदल से अधर कंपित तोड़ दो निज मौन अब।
हक़ जताओ दोस्ती पर अजनबी है कौन अब।।
मेरी बातों का असर उसके मुस्कुराते चेहरे पर साफ़ दिखाई देने लगा। बेझिझक मैंने उसकी तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। हया से गर्दन हिलाते हुए उसने मेरी दोस्ती स्वीकार कर ली। जब मैंने परिचय देते हुए उसे बताया कि मैं फर्स्ट इअर स्टूडैंट रोहित शर्मा हूँ तो वो खीझकर कुर्सी से उठ खड़ी हुई। मैंने आगे बढ़कर बात सँभालते हुए उससे कहा,” पहले मेरी बात सुन लो, फिर चली जाना। मुझे सीनियर्स की मित्र मंडली से जुड़े मात्र तीन-चार दिन ही हुए हैं। मेरी तरह अब तुम भी इस मित्र मंडली का मज़बूत हिस्सा हो। दोस्तों के होते हुए कभी कॉलेज में खुद को अकेला मत समझना।” कंधे पर बैग लटकाकर वो वहाँ से चुपचाप चली गई। अब क्लास रूम से लेकर लाइब्रेरी, कैफेटेरिया तक हम दोनों साथ में टाइम स्पैंड करते नज़र आने लगे। प्रोफेसर गंजू की क्लास बंक करके श्यामा मालिन से ताज़ी गाजर, मूली खरीद कर टहलते हुए खाने का अलग ही मज़ा होता था। ऐनवल डे पर होने वाले नाटक की प्री रिहर्सल के समय कॉलेज कैम्पस में लगे पीतवर्णी पुष्पों को छूते हुए हम दोनों किसी और ही दुनिया का भ्रमण करते नज़र आते थे।सुबह-से-शाम तक डायलॉग रटने, एक-दूसरे के रोल की प्रिपरेशन कराने में हम दोनों ऐसे तल्लीन हो जाते थे, जैसे हम नाटक नहीं अपनी रियल लाइफ के अहम किरदार की भूमिका निभा रहे हों। उन दिनों हमारी दोस्ती काफी चर्चित हुआ करती थी। मुसीबत के समय एक-दूसरे के साथ खड़े होकर हम बड़ी-से-बड़ी समस्या का समाधान मिनटों में निकाल लिया करते थे।
तीन साल पलक झपकते कब, कैसे निकल गए कुछ पता ही नहीं चला। फोर्थ इअर की बात है। लॉक डाऊन के लगते ही कॉलेज की छुट्टियाँ हो गईं। ट्रेन पकड़ते समय किशोरी से हर दिन मोबाइल पर हाल-चाल देने का वादा करके मैं आगरा चला आया। उसके लखनऊ पहुँचने के बाद कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रा जब हम दोनों ने एक-दूसरे के परिवार की ख़ैरियत का हाल नहीं पूछा हो। एकाएक दो माह बाद किशोरी ने न तो मेरा कोई कॉल ही रिसीव किया और न ही कोई मैसेज भेजा। लॉक डाऊन में मैं चाहकर भी उस तक नहीं पहुँच पा रहा था। एक दिन नोट बुक के पृष्ठ पलटते हुए मुझे मनीष खन्ना का मोबाइल नम्बर मिल गया। मनीष लखनऊ का ही रहने वाला था। मैंने किशोरी की जानकारी हासिल करने के नज़रिये से उसे कॉल लगाया। मनीष ने बताया कि कोरोना काल का ग्रास बनी किशोरी अब हमारे बीच इस दुनिया में नहीं रही। यह सुनकर मैं अवाक् रह गया। मेरे हाथ से छूटकर मोबाइल ज़मीन पर गिर गया । आँखों में छलके हुए आँसुओं को पोंछकर लंबी श्वाँस बाहर छोड़ते हुए हमेशा की तरह मैंने फिर एक प्रश्न ठोक दिया, तुुम मुझे अकेला छोड़कर कैसे जा सकती हो, किशोरी..?
ज़िंदगी इसी का नाम है…न चाहते हुए भी अपनों से दूर होकर हमें जीना ही पड़ता है। आज किशोरी मेरे साथ नहीं है लेकिन उसके होठों की मुस्कुराहट, नशीली आँखों से छलकती जीवंतता उसकी दी हुई एक-एक हिदायत आज भी संबल बनी मुझे उसके साथ होने का अहसास दिलाती है।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
मैं डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना” यह प्रमाणित करती हूँ कि “दोस्ती” कहानी मेरा मौलिक सृजन है। इसके लिए मैं हर तरह से प्रतिबद्ध हूँ।