दोष किसे दें
कहते हैं
गहन पीड़ा की भूमि पर उपजती है कविता
यह दौर तो भयानक मंजर है
पल, प्रति-पल चूभता नश्तर है
कविता मर्माहत है,
वह देख रही है – खंड-प्रलय
तार -तार होती मानवता और
लुप्त होती संवेदनाएं।
एक पल सोचती है कविता –
हुकूमतों को भरपूर कोसे
पर कविता संस्कारी है
ठहर जाती है
कैसे कोसे ?
यह ऐसी धरा पर उपजी है
जहाँ नहीं कोसा जाता
मृत -आत्माओं को ।