दोगला समाज
दोगला समाज
औरत केवल औरत ही तो नहीं,
जन-जननी है,इंसान भी है।
व्यवस्थावादी रुढ़ समाज ने,
आखिर क्या दिया मुझे,
चुटकी भर सिंदूर,बिंदी,झुमका-कंगना,लिपस्टिक,करीम,
नहीं दिया कभी मुझे इंसान होने का हक।
बदल दी मेरी परिभाषा,
बना दिया मुझे वस्तु उपभोग की,
बस पुरुष को खुश करना,
यौनिकी पे भी नियंत्रण पुरुष का।
अच्छी ग्रहणी बनना,पैदा करना बच्चें।
करना झाड़ू-पोंछा,सफाई।
बने रहना मोह-ममता,प्यार की देवी।
घुंघट,पर्दा,चारदीवारी,शर्माना नजरें झुका के चलना।
करते रहे मेरी इच्छाओं का कत्ल,
मैं चुप रही।
बना दिए मेरी सुंदरता के पैमाने,
सुढोल शरीर,उभरे हुए सतन,कटीले नैन,
यह तो मासिक देह हैं केवल,
पर इन से बना दी मेरी औरत होने की पहचान।
डाल दिया पर्दा मेरे गुणों पे,
नहीं पेश की मेरी असली छवि जान-बूझकर।
मैं समाज का आधा हिस्सा हूं।
पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर लड़े हैं सभी आंदोलन,
आज भी है लड़ाइयां,अधूरी है मेरे बिन,
एक स्वच्छ समाज की।
मैं अगवाही नेतृत्व करती आंदोलनों का,
बुद्धिजीवी लेखक भी हूं,मैंने भी योगदान दिया है साहित्य को,
रचनाकार,हुनरमंद,कलाकार,खिलाड़ी,
वैज्ञानिक व समाज सुधारक भी हूं।
पुरुषों से आगे हूं मैं!धकेला जा रहा है मुझे बहुत पीछे।
भावुकता व रोना छोड़ने होंगे मुझे,
अब मैं चुप नहीं बैठूंगी,तोड़ने है गले-सड़े,रीति-रिवाज,
ये बेड़ियां भी।
लांघनी है हर दीवार इस दोगले समाज की।
बदलनी होगी खुद अपनी छवि,
सुंदरता की कसौटी भी।
छीनना होगा अपना इंसान होने का हक,
इस व्यवस्थावादी समाज से।
सरदानन्द राजली ©
94163-19388