देह मन्दिर को बनाकर पुजता मैं प्रेम तेरा
शुन्य अंतरमन की भाषा जो पढ़े विद्वान वह है
लाख चिंताओं का मेरे एक समाधान वह है
लाख रंगों की कलाकृति
है यही विस्तार मेरा
तेरे मन का जो भरम है है वही आधार मेरा
यह जगत वीरान घर है
शुन्य में मेरा बसेरा
देह मन्दिर को बनाकर पुजता मैं प्रेम तेरा
जो नहीं तू मैं वही हूं
मैं नहीं जो तू वही है
जो अब नहीं है कब नहीं था
सब नहीं है सब नहीं था
सत्य व्याकुल है विकल है
मिथ्य ने आज मुझको घेरा
देह मन्दिर को बनाकर पुजता मैं प्रेम तेरा