देह का आत्मीय
देह का आत्मीय
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देह पहचान नहीं है।
चेतना पहचान नहीं है।
पहचान तो प्राण भी नहीं है।
ज्ञान का जँगल जब व्यवस्थित
होता है,तब
उभरती है छाया की सटीक पहचान।
पंच महाभूत की प्रकृति
सक्रिय होकर समक्ष खड़ी होती है।
सप्त सुर की ध्वनियाँ
तेरा बिम्ब होकर पहचान देती है।
तुम आदमी से ईश्वर का सफर
ईश्वर से नश्वरता की यात्रा
समझते, जानते, मानते हो।
अँधेरे से प्रगट होना और
अँधेरे में ही सिमट जाना
बिना जान-पहचान के ठानते हो।
देह की मर्यादा आकार से है।
चेतना की प्रतिष्ठा वासना से है।
प्राण की वास्तविकता चेष्टा से है।
ज्ञान का प्रमाण बिक्षुब्धता से है।
मनुष्य की बिक्षुब्धता ही
देह का अपना है
आत्मीय है।
कोई रँग देह,चेतना,प्राण को नहीं पहचानता।
देह,चेतना,प्राण को रँग देता जरूर है।
प्रकाश और अँधकार ज्ञान की परिभाषा नहीं जानता।
ज्ञान को प्रकाशित होने का ज्ञान
देता भरपूर है।
देह को अपना आत्मीय ढ़ूँढ़ने का
अवसर व अधिकार निर्विवाद है।
जीवन भर मंथन करता है
मिला हो ऐसा कहीं नहीं संवाद है।
देह,चेतना,प्राण,ज्ञान का
परस्पर स्नेह, अस्तित्व का होना है।
मतभेदों,मनभेदों से, अस्नेह होने से
होने का अभिप्राय खोना है।
——————————–24-10-24