देहरादून।
जीवन भर ये शहर मुझे,
आता रहेगा याद,
कितनी जल्दी बीत गया,
ये सात वर्षों का साथ,
अपने में मस्त रहता था मैं,
गर्मी बरसात और जाड़ों में,
ना मिलता कभी कोई साथ में तो,
मैं अकेला ही घूम आता था पहाड़ों में,
पेशा ही कुछ ऐसा था मेरा,
हर गली मुझको पहचानती थी,
नाम से भले ना जानती हो मुझे,
पर सूरत से मुझको जानती थी,
जाने पहचाने कई चेहरे थे,
बहुत अच्छे थे लोग,
कुछ नज़र आते कभी-कभी,
तो कुछ दिख जाते थे रोज़,
घंटाघर था भीड़ से भरा,
तो पहाड़ों में ख़ूबसूरत ख़ामोशी थी,
गर्मियों में तपता सूरज था,
तो सर्दियों की धूप में गर्मजोशी थी,
शब्दों में कहना मुश्किल है,
जो दिल में है एहसास,
अनगिनत अविस्मरणीय किस्से हैं,
हर याद बहुत है ख़ास,
काश कि मैं उन वादियों में,
फिर पहुंच जाता उड़के,
काश कि वापस आ पाता “अंबर”,
फिर ग़ुज़रा वक्त वो मुड़ के।
कवि-अंबर श्रीवास्तव