#देसी ग़ज़ल
#देसी ग़ज़ल
(सामयिक संदर्भों पर)
■ अंधेरे दिन-दहाड़े जा रहे हैं…!
【प्रणय प्रभात】
– बिना कारण लताड़े जा रहे हैं।
जो सच्चे हैं वो ताड़े जा रहे हैं।।
– उजालों की जगह सम्मान लेने।
अंधेरे दिन-दहाड़े जा रहे हैं।।
– अभी होली में बाक़ी छह महीने।
ये कपड़े काहे फाड़े जा रहे हैं??
– तमाशा बन गए रिश्ते सियासी।
बना कर के बिगाड़े जा रहे हैं।।
– पुरानी क़ब्र खोदी जा रही है।
गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं।।
– मोहल्ला मूक-बधिरों का समझ के।
अधूरा ज्ञान झाड़े जा रहे हैं।।
– वो अर्थों से हैं कोसों दूर अब तक।
जो शब्दों को पछाड़े जा रहे हैं।।
– निकल के आए हैं चिड़िया घरों से।
बिना मतलब दहाड़े जा रहे हैं।।
– अभी भी चीर खींचा जा रहा है।
अभी भी दांत फाड़े जा रहे हैं।।
– यहां शहनाई पूरब जा रही है।
यहां पश्चिम नगाड़े जा रहे हैं।।
– उढ़ाई जा रही मुर्दों को शॉलें।
यहां ज़िंदा उघाड़े जा रहे हैं।।
– कहीं पे घाव फोकट बंट रहे हैं।
कहीं मरहम जुगाड़े जा रहे हैं।।
– खड़ी जलकुंभियां बाहें पसारे।
मिलन करने सिंघाड़े जा रहे हैं।।
– निमन्त्रण दे गई हैं गिनतियाँ कुछ।
भगे-दौड़े पहाड़े जा रहे हैं।।
– जिन्हें सौंपा गया रक्षा का जिम्मा।
वही बगिया उजाड़े जा रहे हैं।।
●संपादक●
♀न्यूज़&व्यूज़♀
श्योपुर (मध्यप्रदेश)