देश ढहे जा रहा है !
देश ढहे जा रहा है !
सहस्त्राब्दियों से संवहित
एक महान सभ्यता
पुकार उठी है-
अतीत के ध्वंसावशेषों
विघटन-पलायन के भयानक
संतापों को झेलते
मलीन हुयी जा रही है …
हाय ! झुकी जा रही है …!
कह रही अंतर्मन को-
सौम्य! देख रहे आज ;
किसी को तनिक नहीं लाज !
विविध प्रारुपों में
आक्रमण अनवरत्…
कटुता की पराकाष्ठा
सतत्… सतत् …
निष्कंटक बढ़े जा रहा है …
देश मरे जा रहा है …!
धर्म दर्शन अध्यात्म अतिक्रमित,
प्रकृति विछिन्न असंतुलित !
पृथ्वी पानी पवन प्रकाश …
धवल समेकित आकाश !
हैं इसके दृश्य कण विशुद्ध …
या हो चुके अवरुद्ध …!
जीवंत स्वरुप खोये मरे जा रहा है…
चीर संस्कृतियों का दृढ़ स्तम्भ ढहे जा रहा है …!
✍? आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’