देव व्रत की भीष्म प्रतिज्ञा : उचित या अनुचित
पिता की खुशी के लिए कर लिया,
आजीवन ब्रह्मचर्य का कठिन व्रत ।
सिंहासन के प्रति निष्ठावान रहने का,
वचन दे बैठा पिता को देवव्रत।
सर्वगुण संपन्न होकर भी सत्ता से ,
नहीं थी कुछ भी उसे मोह न लालसा ।
अपने सौतेले भाइयों की छत्र छाया बना,
और सौतेली माता को भी दिया दिलासा ।
समय बदला ,हालात बदले मगर ,
देवव्रत का विचार न बदल पाया।
लाख कोशिश की माता ने परंतु ,
पुत्र अपना वचन न तोड़ पाया ।
मगर भाग्य की विडंबना देखो ,
दोनो भाई ही जीवित न रहे ।
एक युद्ध करते वीर गति को प्राप्त हुआ,
दूजे के प्राण क्षय रोग ने हरे ।
सिंहासन हस्तिनापुर का फिर रिक्त हुआ ,
रहा न कोई भी अब वारिस ।
तो माता सत्यवती ने फिर पुत्र वेदव्यास से ,
अपनी विधवा वधुएं को दिलवाया वारिस ।
देवव्रत उन वारिसों की भी लगन ,
से संभाल और सुरक्षा करता रहा ।
तीन पुत्रों में एक दासी पुत्र विदुर था,
बाकी दो में एक अंधा दूजा निर्बल रहा।
सत्ता सौंपने का समय आया तो ,
निर्बल पुत्र राजा बना ।
अंधा पुत्र उसका सहायक और ,
दासी पुत्र मंत्री बना ।
तीनो के फिर विवाह हुए ,
सुयोग्य कन्याओं के साथ ।
पांडू के पुत्र हुए पांडव बने ,
और घृतराष्ट्र और गांधारी के ,
१०० पुत्र कौरव हुए ।
राज परिवार इस प्रकार बढ़ता गया,
फिर सत्ता को लेकर रस्साकशी हुई ।
देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा और वचन के कारण,
सिंहासन की सुरक्षा मगर न हुई ।
हस्तिनापुर की बागडोर सुरक्षित हाथों से ,
निकलकर अंधे राजा के हाथ आ गई ।
फिर तो कौरव पांडव दो गुट हो गए ,
ईर्ष्या ,द्वेष और शत्रुता की कहानी शुरू हुई ।
इनकी शत्रुता ने बढ़कर महाभारत युद्ध ,
का रूप ले लिया ।
इस बढ़ते अधर्म और अन्याय के पर्याय ने ,
वंश को ही समाप्त कर दिया ।
देवव्रत अब सोच रहा ,शर शैया पर लेटे हुए,
मुझसे जरूर कहीं भूल हुई ,
मैं अपनी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा के कारण ,
और वचन से बंधा रहा ।,
मुझसे राज परिवार में अनुशासन और धर्म ,
स्थापित करने में चूक हुई ।
काश ! मैं अपनी प्रतिज्ञा और वचनों में,
समय और हालात के अनुसार तोड़ देता।
राज सिंहासन की बागडोर लेता अपने हाथों में,
तो धर्म और न्याय की स्थापना कर पाता ।
मेरा कर्तव्य और जिम्मेदारियां क्या है,
मैं इस विषय पर ध्यान नही दे पाया ।
जिसकी वजह से पांडू पुत्रों और पुत्र वधु ,
द्रोपदी के साथ अन्याय और अधर्म हुआ ।
अब धर्म और न्याय की स्थापना तो होगी ,
पुत्र युद्धिष्ठर के शासन काल में।
मुझे खुशी और संतुष्टि है की अब जाकर ,
समृद्ध और आदर्श शासन होगा ,
मेरे हस्तिनापुर में ।
मैने जो भूल की उसे तुम कभी ना ,
दोहराना मेरे पुत्र ।
अपने निजी प्रतिज्ञाओं और वचनों की भेंट ,
अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को मत चढ़ा,
देना मेरे पुत्र ।
राजा भरत और मेरे सपनो को ,
अब तुम साकार करना ।
हमारे आदर्शों से पूर्ण राज्य शासन ,
अब तुम स्थापित करना ।
इच्छा मृत्यु का वरदान मेरे जीवन ,
के लिए अभिशाप बना।
अब इस अभिशाप से मुक्ति चाहता हूं।
हे प्रभु ! बहुत देख लिया सर्व नाश कुल का,
अब तेरे चरणों में विश्रांति चाहता हूं।