देवी हूँ मैं….
पति…..
साहब बाहर से आते हैं
जैसा घर छोड़ कर गये थे
वैसा ही पाते हैं ,
एकदम साफ सुथरा
हर चीज़ व्यवस्थित
कहीं नही बिखरा एक भी कतरा ,
दिन भर क्या करती हो ?
जहाँ छोड़ कर जाता हूँ
वापस आने पर वहीं तो मिलती हो ,
अरे ! थोड़ा चला फिरा करो
कुछ नही तो एक बार
अपना वजन ही नाप लिया करो ,
जब देखो बस बैठी रहती हो
बैठे बैठे तुम
जरा भी नही थकती हो ?
ना कहीं आना है ना जाना है
दिन भर बस घर में ही
बेमतलब का सर खपाना है ,
मुझे देखो कितना काम करता हूँ
तुम्हारी तरह नही
दिन भर आराम करता हूँ ,
पत्नी…..
एक मिनट एक मिनट जरा रूको
थोड़ी मेरी भी सुन ली
फिर अपनी जी भर कर कहो ,
तुम जब बाहर जाते हो
वापस लौट कर आते हो
घर वैसा ही साफ सुथरा पाते हो ,
क्योंकि तुम्हारे जाने के बाद
मेरे चार से छ: हाथ हो जाते हैं
और मिनटों में सारा काम निपटाते हैं ,
वापस आने पर वहीं बैठा देखते हो
मुझे जहाँ छोडकर सुबह जाते हो
फिर भी मेरा जादू समझ नही पाते हो ?
तुम्हारे चश्मे का नम्बर बदल गया है
तभी तो मेरी छरहरी काया में
तुम्हारे मन का वजन चिपक गया है ,
एक जगह बैठे – बैठ कैसे मैं
सारा काम कर जाती हूँ
इसिलिए तुमको समझ नही आती हूँ ,
मुझको समझना आसान नही है
और ये तुम्हारे बस का तो
एकदम काम नही है ,
अगर मैं रोज रोज बाहर जाती
तो तुम्हारे वापस आने पर
छप्पन भोग तुमको कैसे लगाती ?
तुम बाहर जाओ काम करो
जग में अपना नाम करो
पर इतना ना अहंकार करो ,
मैं अपना बखान नही करती हूँ
रोज रोज बार बार हर बार
तुम्हारी हर बात सुन लेती हूँ ,
किसी बात पर उफ नही करती हूँ
क्योंकि इस घर में मेरे अपने रहते हैं
इनके लिए सब चुपचाप सहती हूँ ,
इनके लिए ही किस्मत की
लकीरों से लड़ी हूँ मैं
बन कर देवी इनके लिए
तन कर खड़ी हूँ मैं
तुम मानो ना मानो
इस घर की देवी हूँ मैं
इस घर की देवी हूँ मैं ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 21/07/2020 )