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25 Jun 2023 · 44 min read

देवमूर्ति से परे मुक्तिबोध का अक्स / MUSAFIR BAITHA

किसी साहित्यकार के जीवन और रचना दृष्टि में जितना अधिक तालमेल हो, यानी, कथनी और करनी का अंतर जितना कम हो उसे उसी अनुपात में ईमानदार कहा जाना चाहिए. इस ख्याल से देखें परखें तो मार्क्सवादी ठहराए गए मुक्तिबोध का भी जीवन और रचना संसार मार्क्सवाद की कसौटी पर बहुत खरा नहीं उतरता. भारतीय मार्क्सवादी जिस सुभीते से मार्क्स के दर्शन को लेते हैं उसमें मार्क्सवाद घटकर महज जनवाद और प्रगतिशीलता तक उतर आता है और प्रगतिशीलता का कोई मानक अथवा मानदंड नहीं हो सकता जो मार्क्सवाद अथवा वाम के संग सदा चले. भारतीय मार्क्सवाद में मार्क्सवादी राजनीति की ही तरह मार्क्सवादी साहित्य में भी धार्मिक अन्धविश्वास एवं अन्य चोंचलें आराम से स्वीकार पाते हुए अट जाते हैं. यहाँ दुर्गापूजा-लक्ष्मी पूजा, ईद-बकरीद जैसे अन्धविश्वास सेते पर्व-त्यौहार भी आराम से एक मार्क्सवादी मनाता है एवं इन व्यर्थ के धार्मिक वाह्याचारों पर शुभकामना एवं बधाइयों का लेन देन एक आस्तिक की भांति ही सम्पादित करता है. नास्तिकता नहीं, वैज्ञानिक सोच नहीं बल्कि धार्मिक आस्था एवं आस्तिकता ही जैसे भारतीय मार्क्सवादियों के लिए वरेण्य है. भारतीय मार्क्सवाद यहाँ उसी तरह से सिद्धांत विहीन हो, वीर्य विहीन हो जीवित है जैसे कि समाजवाद मुलायम यादव की राजनीतिक छात्र्छाया में जीवित है!
इन स्थितियों को मद्देनजर रखते हुए मुझे मुक्तिबोध के जीवन और रचना के बारे में अपने पर्यवेक्षणों को इस आलेख में रखना है.

स्पष्टतः चूँकि मुक्तिबोध के जीवन एवं चिंतन में वाम से विचलन के कोने की तलाश यहाँ मुख्य ध्येय है अतः पहले वामपंथ अथवा साम्यवाद की एक मोटी समझ हम प्रसिद्ध वाम विद्वान् राहुल सांकृत्यायन, मार्क्स एवं अन्य मान्य चिंतकों-लेखकों के विचारों के माध्यम से लेते हैं. ’साम्यवाद ही क्यों’ नामक पुस्तिका के ‘साम्यवाद तथा धर्म और ईश्वर’ अध्याय में राहुल सांकृत्यायन बताते हैं कि ईश्वर मनुष्य का मानसपुत्र है. ईश्वर का मानना हमें इस बात को भी मानने के लिए प्रेरित करता है कि संसार के मालिक उस ईश्वर की भांति, यहाँ भी एक राजा या कर्ता-धर्ता होना चाहिए. सहस्राब्दियों तक राजा लोग ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते रहे हैं. साम्यवाद सारी शक्तियों का जनता में उसी प्रकार समावेश चाहता है जिस तरह वह संसार की सारी शक्तियों को किसी ख्याली ईश्वर के हाथों में मानकर, प्रकृति में समाविष्ट समझता है. राहुल कहते हैं कि ईश्वर का विचार हमारे सभी कामों में कठिनाई पैदा करता है. ईश्वर का ख्याल ही यह सिखलाता है कि हम अपने मालिक नहीं हैं. ईश्वर और धर्म का चोली-दामन का साथ है और जाति, भेदभाव, अन्धविश्वास, भाग्यवाद, पूजा-पाठ जैसे वाह्याचार इसके आवश्यक एवं चालक कल-पुर्जे हैं. मनुष्य-जाति के शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उससे उत्पन्न मिथ्या-विश्वासों का समूह ही धर्म है. इस पुस्तक के ‘प्रकाशकीय’ में “समाज, धर्म, भगवान, सदाचार, जात-पांत और जोंकों (पूंजीपति शोषकों) की क्षय शीर्षकों से अब तक चली आ रही प्राचीन जीवन-प्रणाली पर राहुल जी ने कठोर प्रहार किया है और विज्ञान और समाजवादी-साम्यवादी भावभूमि पर हमारे समाज के केंचुल को उतार फेंकने का आह्वान निहित है. राहुल जी की मौलिक चिंतन-वृत्ति और अन्वेषी दृष्टि में सर्वहारा और मेहनतकश लोगों के उत्थान का निरंतर प्रयास निहित है.”1

“…मार्क्स निरीश्वरवादी एवं भौतिकवादी विचारक हैं. धर्म के विश्लेषण में मार्क्स ने धर्म के सामाजिक पक्ष को विशेष महत्व दिया है. धर्म के विरुद्ध मार्क्स की मुख्य आपत्ति यह है कि धर्म सर्वहारा वर्ग को अपनी दयनीय आर्थिक और सामाजिक स्थिति में संतुष्ट रहने के लिए प्रेरित करता है.”2 ‘जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये’ – तुलसीदास भी कह गए हैं. और तुलसीदास के राम और उनके रामचरितमानस पर अप्रगतिशील अथवा दक्षिणपंथी ही नहीं वरन हर प्रगतिशील और मार्क्सवादी हिंदी साहित्यकार लहालोट हैं.

मार्क्सवादी आलोचक माने जाने वाले रामविलास शर्मा की समझ है – “मार्क्सवाद के बारे में लोगों में एक बड़ी भ्रान्ति है. लोग यह समझते हैं कि मार्क्स के पहले जो कुछ लिखा गया उसका निषेध है मार्क्सवाद. ऐसा नहीं है, बल्कि मार्क्स के पहले जो कुछ लिखा गया उसका विकास है मार्क्सवाद. सच्चा मार्क्सवादी वह है जो अपनी सांस्कृतिक विरासत पहचानता है, चाहे अपनी भाषा की हो, चाहे दूसरे की भाषा की हो.”3

क्या ही बोगस तर्क है! जैसे, सांस्कृतिक विरासत कोई प्रगतिशील आमद ही होती है, जैसे उसमें अप्रगतिशीलता का तत्व होता ही न हो, जैसे, किसी सांस्कृतिक विरासत में विरुद्ध भाव का अटाव होता ही न हो, जैसे, सांस्कृतिक विरासत में मिथकों-काल्पनिक कथाओ, तर्क विरुद्ध बातों का अंगीकार भी जरूरी हो!

मार्क्स और धर्म की बात आगे बढ़ा कर कहें तो ‘धर्म सर्वहारा वर्ग को नशे की सुख-निद्रा में सुलाकर उसे पूरी तरह भाग्यवादी बना देता है. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही मार्क्स ने कहा था कि “धर्म आम लोगों की अफीम है. …मार्क्स के अनुसार, समाज में धर्म की यह नकारात्मक भूमिका पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होती है और सर्वहारा वर्ग पर अपना वर्चस्व बनाए रखने में उसकी सहायता करती है. इसलिए, पूंजीपति वर्ग समाज में धर्म के प्रभाव को बनाए रखने के लिए निरंतर प्रचार करता रहता है.”4

कोफ़्त होती है कि मार्क्सवादी मान्य मुक्तिबोध पर बात करते रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, विष्णु चन्द्र शर्मा, नेमिचंद जैन जैसे दिग्गज मार्क्सवादी-वामपंथी साहित्यकार ‘महाकुम्भ’, ‘त्रिवेणी’ एवं ‘मुक्तिपर्व’ जैसे धर्माडंबर एवं भाग्यवाद को पोसने वाले शब्दों के सहारे से बात करते हैं. अब भाग्य, भाग्यवान और तद्विषयक अनेक अंधविश्वासों को जीते हुए भी मार्क्सवादी या कि वामपंथी हुआ जा सकता है तो मुझे कुछ नहीं कहना है! मेरी चिंता और जिज्ञासा यह है कि मुक्तिबोध जब यह सब दकियानूस कर्म जीते थे तो वे किस तरह से मार्क्सवादी हैं, जबकि मार्क्सवाद के उसूलों में भाग्य-भाग्यवाद एवं इनसे जुड़े विश्वासों को टा-टा, बाय-बाय करना जरूरी है।

मुक्तिबोध के वाम-मिजाज की पड़ताल के सहारे से बात करें तो वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से कभी बाजाब्ता जुड़े हुए थे, इस लिहाज से वे मार्क्सवादी-वामपंथी लेखक हुए, वामपंथी लेखक गण द्वारा उन्हें वामपंथी माना जाना उचित कहा जा सकता है, पर मुझे यह नहीं समझ में आता कि वामपंथियों द्वारा भी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे मूलतः वेदांती रस के कवि को सबसे बड़ा आधुनिक हिंदी कवि क्यों मान लिया जा रहा है? वामपंथी लेखक, आलोचक, भावक भी क्यों मार्क्सवादी मुक्तिबोध पर राम-हनुमान-तुलसीदास प्रेमी निराला पर लहालोट हैं?

यह यूँ ही नहीं है कि तुलसी, तुलसी के आराध्य राम आदि का स्वीकार मुक्तिबोध के यहाँ भी मिलता है. ऐसे में जानना यह जरूरी हो जाता है कि मुक्तिबोध की वैचारिक-रचनात्मक लेखनी, कविता, कहानी का कितना हिस्सा मार्क्सवादी है, कितना जनवादी एवं कितना अप्रगतिशील अथवा धार्मिक-दकियानूस झुकाव वाला?
भारतीय मार्क्सवादियों ने प्रायः फैशन बतौर इस चमकदार विचारधारा को ओढ़ लिया है. अक्सर मार्क्सवाद उनका आचरित पक्ष नहीं है. मुक्तिबोध का भी सीधे सीधे हिन्दू धार्मिक वाह्याचारों में मुब्तिला होना एवं भाग्य, सौभाग्य, भगवान आदि में विश्वास के साथ बात करना उनके मार्क्सवादी होने को संदेहास्पद बनाता है. तथापि नामवर सिंह समेत कई धुरंधर मार्क्सवादी मान्य लेखक मुक्तिबोध को वाम चाम का साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते. इस क्रम में डा. रामविलास शर्मा का एक कथन बेहद ही रोचक है. मुक्तिबोध को बेदाग बनाते हुए वे कई मार्क्सवादियों को कुछ इस तरह दागदार अंकित करते हैं – “मार्क्सवाद उनके (मुक्तिबोध के) लिए भारत भूषण अग्रवाल या दूसरे तमाम लोगों की तरह कोई सुविधा भर नहीं था, या कोई लिहाफ नहीं था जिसे जब चाहा ओढ़ लिया, जब चाहा उतर कर रख दिया. वे मार्क्सवाद को धोखना (धोखा देना) नहीं, उसे जीना चाहते थे.”5 शिव कुमार मिश्र यहीं अपने आलेख की शुरुआत में मार्क्सवाद पर कहते हैं – “वह एक ऐसा ज्ञानानुशासन है जो हमें यह बताता है कि किसी भी विकास का अध्ययन करने के लिए उसके मूल अंतर्विरोधों का अध्ययन जरूरी होता है. मार्क्सवाद के इस ज्ञानानुशासन में अनुमानों, अटकलों, इल्हाम या अंधश्रद्धा के लिए कोई जगह नहीं है. …विश्व भर में मार्क्सवादी आस्था के रचनाकारों और विचारकों ने बड़े बड़े कीर्तिमान किये, परन्तु कभी उनकी देवमूर्तियाँ नहीं गढ़ी गईं. मार्क्सवाद के मनीषियों ने हमें सदैव इसके प्रति सावधान किया है. उन्होंने हमें बराबर आगाह किया है कि अंतर्विरोधों की अनदेखी करते हुए किसी भी विकास का अध्ययन हमें अधूरे और गलत निष्कर्षों तक पहुंचाएगा. देवमूर्तियाँ आकाश से नहीं टपकतीं, ऐसे ही अध्ययनों का ही वे परिणाम होती हैं. हिन्ढी की मार्क्सवादी समीक्षा में इस प्रकार के अध्ययन का शिकार हुए हैं गजानन माधव मुक्तिबोध, जिन्हें शायद इधर पढ़ा कम, पूजा अधिक जा रहा है.”6

मुक्तिबोध जनेऊ धारण करते थे या नहीं, पता नहीं, मगर, वे धार्मिक पूजापाठ-उपवास तक निभाते थे। यह उनकी पत्नी भी कहती हैं और अन्य स्रोतों से भी गवाही मिलती कुछ लेखकों को उनके द्वारा लिखी गयी चिट्ठियां भी मुक्तिबोध को भाग्य और भगवान की शरण में डालती हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ कविता में भी उन्होंने दकियानूसी अथवा अप्रगतिशील मोटिफ, मेटाफर, फैंटेसी एवं मुहावरों का प्रयोग किया है। ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ जैसी विशुद्ध अन्धविश्वास के सेवन की कहानी लिख गये हैं वे। ‘ब्रह्मराक्षस’ अपने आप में एक ऐसा शब्द है जो अन्धविश्वास से उपजा है. ‘ब्राह्मण की आत्मा’ और ‘राक्षस’ के काल्पनिक अस्तित्व और व्यक्तित्व के दकियानूसी विचारपरम्परा को स्वीकारते हुए कोई प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक सोच को समृद्ध करने वाली बात कही जा सकती है, यह मानने से मुझे साफ़ इनकार है. वैसे, ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ कहानी पर नामवर सिंह का मंतव्य भी हम रखते चलें तो स्थिति और साफ़ होगी. वे कहते हैं – “कहानी ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ को भी शास्त्रीय अवधारणा मानें या धार्मिक विशवास समझें, मुक्तिबोध ने लोक में प्रचलित मिथक से जुड़ी अवधारणा का ही प्रयोग किया है. प्रचलित अवधारणा के अनुसार ‘ब्रह्मराक्षस’ एक ऐसे ज्ञानी ब्राह्मण की अतृप्त आत्मा होती है, जो अपने ज्ञान को उपयुक्त पात्र के अभाव में किसी को नहीं देती, अपने साथ लेकर मर जाती है. ‘ब्रह्मराक्षस’ कहानी से इस कथन की पूरी तरह पुष्टि होती है.”7

एक असम्बद्ध सा मगर प्रासंगिक प्रश्न यहाँ राजेन्द्र यादव पर पल रहे सवर्ण पूर्वग्रहों को लेकर भी बनता है. मेरे जानते आलोचक नंदकिशोर नवल ने अपनी लेखनी में ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’ जैसी प्रतिगामी-दकियानूस मूल्य की धार्मिक कविता लिखने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तक को कहीं भी हिन्दू अन्धविश्वासी अथवा अप्रगतिशील नहीं कहा है जबकि यही नवल अपनी पत्रिका ‘कसौटी’ के एक सम्पादकीय में राजेन्द्र यादव को अप्रगतिशील साहित्यकार करार देते हैं. जबकि राजेन्द्र यादव की प्रगतिशीलता असंदिग्ध है और स्वयं नवल की संदिग्ध. ‘प्रगतिशील चेतना का कथा मासिक’ के संपादक रहे राजेन्द्र यादव गोया, नवल की नजर में अप्रगतिशील इसलिये ठहरते हैं कि यादव ने अपनी ‘हंस’ को दलित एवं स्त्री विमर्श का मंच बना दिया जिसके कारण कथित मुख्यधारा के साहित्य में भूचाल आ गया था. इसी प्रकार, जिस नामवर सिंह ने किसी भी साहित्यिक पत्रिका के विरुद्ध अबतक प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की है, जबकि उन्होंने राजेन्द्र यादव की ‘हंस’ को कुछ साल पहले पटना के पुस्तक मेले में सार्वजानिक मंच से ‘कौआ’ हो गई करार दिया था. यह संयोग वश नहीं है कि उस वक्त मंच पर कुछ ही दिनों हंस से पूर्व हुए हंस के पूर्व सहायक संपादक गौरीनाथ भी विराजमान थे. इन पंक्तियों का लेखक मौके पर एक श्रोता की हैसियत से मौजूद था एवं उसने मेला से लौटते हुए तद्विषयक एक ‘स्टेटस’ भी अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर लगाई थी.

‘प्रलेस’ से जुड़े रहे महावीर अग्रवाल की जिस ‘सापेक्ष – 56’ को मुक्तिबोध जन्मशताब्दी के अवसर पर ‘संघर्षों का ताप : मुक्तिबोध’ विशेषांक के रूप में नामवर सिंह से संपादक अग्रवाल के साक्षात्कार के रूप में प्रस्तुत किया गया है उस पत्रिका के कवर पृष्ठ पर ‘स्वस्तिक’ के ‘लोगो’ में ‘श्री’ शब्द को फिट कर प्रस्तुत किया गया है. जैसे कि किसी मार्क्सवादी समारोह का आरम्भ शंखनाद अथवा सरस्वती वंदना से किया जाए! हास्यास्पद यह भी कि यह पत्रिका ‘समकालीन सृजन और समाज की वैज्ञानिक चेतना के लिए प्रतिबद्ध’ जैसे निर्लज्ज टैग के साथ प्रस्तुत होती है.
महावीर अग्रवाल की ने सापेक्ष – 55 को भी मुक्तिबोध अंक के रूप में निकाला है. जाहिर है, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’ शीर्षक से प्रकाशित यह अंक 1148 पृष्ठों का वृहदाकार अंक उनकी मृत्यु के 50 वर्ष बीतने के अवसर पर निकला है. पाप पुण्य में तौल कर भी जहाँ किसी वामपंथी महा ‘आत्मा’ को देखा जा सकता है तो समझा जा सकता है कि वहां किस प्रकार की चेतना का एप्रोच संपादक रख रहा है! इस वृहदाकार अंक में कोई 126 लोगों के मुक्तिबोध पर आलेख, संस्मरण, मन्तव्य अथवा अन्य चीजें हैं पर दो महत्वपूर्ण समकालीन हिंदी के लेखकों की कोई चीज़ का यहाँ सम्मिलित होना चौंकाता है. ख़ास, राजेन्द्र यादव एवं विष्णु खरे का नजरिया पाठकों के लिए उपलब्ध न होना बेहद अखरने वाला है.
इस महाकाय विशेषांक में संपादक ने ‘मुक्तिबोध : मेरी डायरी में’ शीर्षक से 232 पृष्ठों का एक अलग खंड रखा है. मजेदार यह है कि इसमें अनेक तिथियों में संपादक अग्रवाल के ऐसे संस्मरण अंकित हैं जो कहीं से भी मुक्तिबोध से सम्बन्धित नहीं हैं. अग्रवाल ने अपनी सपत्नीकधर्म यात्राओं को भी इसमें डाल रखा है. वामपंथी मुक्तिबोध के संस्मरण के प्रयास में अग्रवाल अपने धर्मअन्धविश्वासी, आडम्बरी, स्वार्थसने क्रियाकलाप को तो उघाड़ ही गए हैं, लगे हाथ अनेक वामपंथी लेखकों के धर्माडंबरी व्यवहार को भी अनायास नग्न करते चले हैं. जिस बेतकल्लुफी से उन्होंने लेखकों के बीच धर्मों के वाह्याचारों को प्रस्तुत किया है उससे आभास होता है कि अग्रवाल वामपंथी साहित्यकारों के धार्मिक आचरण को सहज ही लेते थे. मसलन, ‘अद्भुत ‘अक्षरधाम मन्दिर’ का आनन्द’ शीर्षक डायरी खंड में वे दिल्ली डेटलाइन देकर 28 सितम्बर 2003 तारीख दर्ज करते हुए लिखते हैं, “आज सहधर्मिणी संतोष के साथ ‘अक्षरधाम मन्दिर’ देखकर एक घंटे पहले ‘गोमती गेस्ट हॉउस’ पहुंचकर आराम कर रहे हैं.”8
कमाल देखिये कि ‘एक घंटे पहले’ तो लिख रहे हैं पर डायरी के पन्ने पर यह नहीं दर्ज कर रहे हैं कि यह एक घंटा पहले कब शुरू हुआ था! कमाल यह भी है कि सहधर्मिणी का नाम भी लिखते चलते हैं, जैसे कि डायरी का यह पहला पन्ना हो जहाँ पत्नी के नाम से पाठकों का तारूफ कराना जरूरी हो! यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि इस संस्मरण अंश का मुक्तिबोध से कोई लेना-देना नहीं है. और, यह भ्रम न रहे कि अग्रवाल की यह कोई सामान्य यात्रा अथवा पर्यटन जैसा कुछ रहा होगा. आपका कोई सुबहा बाकी न रहे इसलिए अग्रवाल की धर्म-यात्रा के लपेटे से वामपंथी-प्रगतिशील लेखकों का एक जिक्र देखिये, “बचपन से ही मन में यह इच्छा बलवती थी कि ‘चार धाम’ यात्रा करनी ही है. संयोग कहें या भाग्य या हमारी दृढ़ इच्छा, मैंने और पत्नी संतोष ने दो माह लगातार ‘चार धाम’ और 12 ज्योतिर्लिंग की यात्रा पूरी कर ली. …अपनी दो माह तक निरंतर चलने वाली ‘चार धाम तथा बारह ज्योतिर्लिंग यात्रा’ के सम्बन्ध में मैंने पारिवारिक मित्रों, आलोचक नामवर सिंह, कथाशिल्पी कमलेश्वर, कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल, पहल के संपादक ज्ञानरंजन और कमांडर कमला प्रसाद सहित अनेक मित्रों को आह्लादकारी यात्रा के किस्से सुनाए. सबने मुझे बधाई दी.”9

अब इसे क्या कहा जाए? भला किसी ‘भले’ वामपंथी एवं प्रगतिशील साहित्यकार को कोई अपनी नासमझी क्यों सुनाएगा और अगले को क्या पड़ी है कि किसी अनर्गल धार्मिक भ्रमण का कथा बयान सुने एवं उसपर बधाई भी संप्रेषित करे?
अग्रवाल के डायरी-उल्लेख से मुक्तिबोध पर प्रभाकर माचवे द्वारा लिखी गयी ‘स्वर्गीय मुक्तिबोध’ शीर्षक धर्म-आस्तिक भाव की कविता भी इस प्रकार नग्न होती है – “कल रात सपने में स्वर्ग की सैर करते ‘पार्टनर’ मिल गए/देखते ही हमें खूब खिल गए/बोले –
“गए उन्नीस वर्षों में कितने कितने मित्र यहाँ आ गए …दस बीस?”
फिर वे करते रहे एकालाप/’भारत उस दिन मुझे ‘मुक्तक’ सुनाते थे,/कल ही देखा आए सर्वेश्वर/साही और मलयज और उमाकांत और पन्त,/और भगवत शरण उपाध्याय…”/”पी. सी. जोशी भी उस दिन दिखाई दिए/एक ‘दिनकर’ भी परशुरामावातार बने/गर्जन-तर्जन कर कविता-भाषण रहे थे झाड़/मुस्कुरा रहे अथे सुन सुनकर जवाहर लाल/अरे, उधर ‘शायरे-इनक्लाब’ जोश भी मुंह लटकाए क्यों बैठे थे गुमसुम/पाकिस्तान रास नहीं आया था शायद/
…स्वर्ग के कोने से/अट्टहास करते हुए … ‘निराला’ जी ने ताल ठोंका…/”जागो फिर एक बार”/’पुनर्नवा’ ले आए हजारी प्रसाद जी/राहुल जी ने ‘नए भारत के नए नेता’ पन्ने खोले/प्रायः सभी ‘स्वर्गीय’ नेता, भारत अर्धजीवित…/”पार्टनर, हम भी अब ‘कोटेबल कोट्स’ में एक हो गए/जिन्दा थे तब किसी ने ‘कोट’ तो दूर ‘गंजी’ भी नहीं दी.”10

मुक्तिबोध का ज़ाती एवं रचनात्मक जीवन उनके द्वारा समकालीन मित्र-परिचित साहित्यिकों को लिखे गए पत्रों में अच्छाइयों एवं बुराइयों के साथ आता है. उनके चरित्र में दयनीयता, याचना, आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसाप्रियता, मिथ्याबयानी, मिथ्या अहं, सिफारिश पाने वृत्ति जैसे सामान्य मनुष्यों में पाने वाले तत्व आसानी से पाए जा सकते हैं. उनकी ये सहज मानवजन्य कमजोरियां उनके द्वारा मित्रों-परिचितों को लिखे पत्रों में स्पष्टता के साथ परिलक्षित होती हैं. उनका आत्मसंघर्ष भी बहुत बार अपना ‘मोल लिया हुआ’ साबित होता है. साहित्य की चिंता एवं दीवानगी के आगे वे जीवन के सारे ज्वलंत एवं जरूरी प्रश्नों को प्रायः स्थगित एवं अनसुना करते पाए जाते हैं. कुल्लम कहें तो अपने पत्रों में साहित्यिक के साथ साथ अति साधारण व्यक्ति अर्थात निरीह, स्वार्थी, ईश्वरभीरू एवं अन्य मानवोचित दोषों से युक्त मुक्तिबोध का अक्स हमें प्राप्त होता है.

छह खंडों में छपी मुक्तिबोध रचनावली के छठे खंड अथवा अंतिम खंड में साहित्यिक मित्रों-परिचितों, हमख्यालों एवं हमदर्दों के नाम लिखीं कुल 172 चिट्ठियां रखी गयी हैं। इनमें से आधे से अधिक 74 रचनावली सम्पादक नेमिचंद जैन को संबोधित हैं। इस बाबत जैन का पर्यवेक्षण काबिलेगौर है. “मुक्तिबोध बड़े तत्पर और उत्साही पत्र-लेखक थे और उन्होंने निःसंदेह अपने अनेक बंधुओं, मित्रों तथा अन्य समकालीन युवा लेखकों को पत्र लिखे होंगे. दुर्भाग्यवश केवल कुछ ही उपलब्ध हो पाए. …मुझे लिखे गए पत्र अधिकतर उनके निजी जीवन और उनकी मानसिक उलझनों से सम्बंधित हैं. निःसंदेह ये पत्र मुक्तिबोध के तीखे जीवन-संघर्ष और गहरी मानवीय आस्था को बड़ी आत्मीयता और करुना के साथ प्रकाशित करते हैं और उनकी कष्ट भरी जीवन-यात्रा के अनेक पड़ावों का कुछ अत-पता देते हैं. यद्यपि इसमें भी बीच के कुछ वर्षों के पत्र मिल नहीं सके, और संयोगवश हमारे बीच यह पत्र-व्यव्हार बाद के वर्षों में उतना नियमित और उत्कट नहीं रह पाया, फिर भी 1942 से लगाकर 1964 तक मुक्तिबोध के पूरे जीवन के कुछ सूत्रों को इन पत्रों के द्वारा पाया और समझा जा सकता है.”11
जैन को लिखी चिट्ठियां के अलावा जो अन्यों को चिट्ठियां लिखी गयी हैं उनमें से सर्वाधिक 32 श्रीकांत वर्मा के नाम लिखे गये हैं। तत्कालीन मशहूर मार्क्सवादी राजनेता श्रीपद अमृत डांगे को अंग्रेजी में लिखी गयी चिट्ठी छह पेज घेरती है. सामान्य A4 साइज कागज में हाथ से लिखने पर यह कम से कम 20 पृष्ठों में आना चाहिए. 600 पृष्ठों में पसरा यह खंड सबसे मोटी काया का है जिसमें मुक्तिबोध द्वारा सम्पादित विवादित-प्रतिबंधित तत्कालीन मध्यप्रदेश शासन के सरकारी पाठ्यक्रमों के लिए स्वीकृत इतिहास पुस्तक भी सम्मिलित है.

चिट्ठियों पर बात करते हुए यह बात ध्यान में रखी जानी जरूरी है कि ये निहायत ही निजी होती हैं. और, चिट्ठियों की आपत्तिजनक निजी बातें सामान्यतः सार्वजनिक तौर पर उपयोग में नहीं लाया जाना चाहिए. लेकिन ये चिट्ठियां इसलिए सार्वजनिक की जाती हैं कि किसी विशेष मान्य व्यक्तित्व के निजी ज़िन्दगी में झाँक हम अपने जीवन को थाह सकें. डांगे को लिखी गयी इस चिट्ठी में पार्टी, पार्टी से जुड़े लेखक संघ एवं लेखकों की भूमिका एवं वैचारिक संलग्नता पर शंकाएं एवं विचार रखे गए हैं. मुक्तिबोध ने राजनीतिक पार्टी एवं पार्टी से सम्बद्धता प्राप्त लेखकों की वैचारिक पक्षधरता एवं वाम से विचलन के प्रश्न को नेताजी के समक्ष रखा है. ऐसी चिट्ठियों का महत्व तब बढ़ता जब जवाबी ख़त भी उपलब्ध होते.
मुक्तिबोध रचनावली, खंड 6 के परिवर्द्धित संस्करण की भूमिका लिखते हुए संपादक जैन श्रीपद अमृत डांगे के पत्र की चर्चा करते हुए लिखते हैं – “विशेषकर श्री डांगे को लिखा गया पत्र कई दृष्टियों से ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण दस्तावेज है. उसमें हिंदी में प्रगतिशील आन्दोलन का बड़ा निर्भीक और दो-टूक मूल्यांकन है. साथ ही, उससे साहित्य और सृजनात्मक कार्य के सम्बन्ध में मार्क्सवादी चिंतन के अनेक पक्षों पर मुक्तिबोध की बड़ी गहरी चिंताएं भी सामने आती हैं. इस पत्र में प्रगतीशील आन्दोलन और मुक्तिबोध के बारे में उत्तेजक और सार्थक चर्चा और विचार-विनिमय की शुरुआत होगी, यह आशा की जानी चाहिए. लेकिन जैन ने यह नहीं लिखा है कि यह चिट्ठी मुक्तिबोध ने अपनी पहचान गुप्त रखकर लिखी है. वे शिनाख्त किये जाने से डरे हैं. तत्कालीन मुख्यधारा के हिंदी साहित्य समाज एवं साहित्य के पुरोधाओं से डरे हैं.
चिट्ठियों के जरिये मुक्तिबोध की साहित्य पिपासा के अलावा उनके व्यक्तित्व के गुणों के अलावा उनकी साधारण कमियां, स्वार्थ, राग-विराग, उलाहना, प्रेम-वितृष्णा सामने आते हैं. जो नेमिचंद जैन उनके प्राण प्राण में बसे हैं, जिस नेमिचंद से मुक्तिबोध का जीवन बना उनके प्रति भी उलाहना या कि वितृष्णा-भाव देखने को मिलता है. शमशेर सिंह के नाम सन 1950 (संभवतः पश्चार्ध का) के एक पत्र में जैन का जिक्र यूँ आता है – “नेमिचंद जी को अब फुर्सत नहीं कि कुछ भटकी हुई यादों की भी सुनवाई का सकें. इधर भूले-भरमे राहगीरों की जबानी जो कुछ सुना वह इतना ही है कि पुस्तक भण्डार मजे का चल रहा है. समाचार न इससे ज्यादा न इससे कम. …’नया साहित्य’ में कोरिया पर आपकी कविता पढ़ी. सच कहूँ, कविता बहुत अच्छी लगी. …नागार्जुन की कविता मामूली है. नेमिचंद जी की कवितायेँ आप लोग प्रकाशित क्यों नहीं करते? क्या सचमुच ‘नया साहित्य’ वालों को कविता से दुश्मनी है? बाकी सब ठीक है. कभी तो चिट्ठी लिखा करो यार. नेमिचंद जी को अब हम कभी लिखने वाले नहीं. सोचो तो, उनका पिछला पत्र अपने शीर्षक के पास एक जनवरी उन्नीस सौ पचास झलका रहा है. क्या सचमुच उनके पास इतनी झंझटें हैं! हमसे तो ज्यादा न होंगीं!”12
मित्रों-परिचितों के आगे आर्थिक मदद को हाथ पसारने की विवशता – अपने दर्जनों पत्र जो उन्होंने समय समय पर अपने साहित्यिक मित्रों को लिखे उनमें दैन्य भाव, आत्मदया का प्रदर्शन एवं आर्थिक सहायता की याचना है. ऐसे सबसे अधिक पत्र नेमिचंद जैन को लिखे गए. पत्रों में ऐसी दैन्य भाव की याचनाएं हैं कि करुणा जगती है. इन पत्रों से पता चलता है कि मदद न कर पाने की स्थिति में अनेक बार नेमीचंद चुप लगा जाते थे, चिट्ठी का जवाब न देते थे. जैन को लिखी मुक्तिबोध की अनेक चिट्ठियां ऐसी हैं जिनसे पता चलता है मुक्तिबोध द्वारा बार बार चिट्ठियां लिखकर मदद की गुहार लगाया जाना जैन को बुरा भी लगता था. मुक्तिबोध को जैन इतने अपना लगते थे कि वे दुःख सुख का अपना पूरा हृदय उलीच कर उनको लिखी चिट्ठियों में रख देते हैं. मुझे तो लगता है कि यदि वह आज जैसा, फोन, व्हाट्सऐप आदि से बात कर, चैट कर, सेकेंडों में लिखित सन्देश छोड़ने की सुविधा वाला जमाना रहता तो मुक्तिबोध के अनुरोधों से तंग आकर जैन भारी परेशान हो जाते! चिट्ठियों के आदान प्रदान में समय लगता है और तुरत जवाब देने की बाध्यता नहीं होती. जवाब न देने, जवाब देर से देने की भी वहां सुविधा होती है.
दिनांक 21 जून 1945 को नेमिचंद जैन को लिखा निहायत ही व्यक्तिगत पत्र कई मुद्दों एवं जाती-जज्बात को छूता है. यह लम्बा पत्र अंग्रेजी में है, उज्जैन से लिखा गया है. सम्बद्ध हिस्से को हिंदी अनुवाद में पढ़िए – “जब से मैं यहाँ आया हूँ, दो दुश्वारियाँ मेरा लगातार पीछा करते चली आ रही हैं. पहला यह कि मुझे यह स्थान हर हाल में एक महीने के भीतर छोड़ देना होगा. दूसरा, आपसे मुझे 150 रुपए का मनीऑर्डर चाहिए. मुझे ये पैसे जल्द से जल्द चाहिए ताकि मुझे अंतिम मुक्ति मिल सके! मैं जानता हूँ कि आप खुद कठिन दौर से गुजर रहे हैं और अस्थिर अवस्था में हैं. लेकिन मेरे इस अंतिम कदम को आपके समर्थन, नैतिक स्वीकार एवं आर्थिक मदद की जरूरत है. दरअसल आप नहीं जानते कि इस काम के लिए मैं आप पर किस हद तक निर्भर हूँ. यह मेरे जीवन का नाजुक एवं निर्णायक घड़ी है. …अलबत्ता, मेरे लिए इस पत्र का आपसे जवाब तथा आपका मनीआर्डर पाना हवा एवं पानी की तरह बेहद जरूरी है ताकि इस छड़ी की सहायता से दुश्मन को भगाया जा सके. मैं अपनी उन भाव-विह्वलताओं को व्यक्त नहीं करना चाहता जो अभी महसूस कर रहा हूँ क्योंकि वे आपके बारे में हैं, क्योंकि आपको अपने मित्रों की प्रशंसा पाना पसंद नहीं है. मुझे आशा है कि आप जल्द ही पत्रोत्तर देंगे.”13
मुक्तिबोध को पता है कि बड़े से बड़ा आत्मीय के सामने भी बार बार हाथ पसारना अच्छी बात नहीं है. विपरीत परिस्थितियों में गहरे फंसा कोई इन्सान ही इन कारुणिक शब्दों में अपने दर्द को अभिव्यक्त कर सकता है– “यह जरूर है कि मैं अपने आप को बार बार सुधरने की कोशिश करता हूँ पर मैं एक आदतन (बल्कि कहिये कि पुराना-पका) अराजकतावादी हूँ. रमेश लगातार बीमार रहता है जो कि एक त्रासदी भरी दुखद स्थिति है. और, जबकि मैंने अपनी ओर से हर कोशिश की, शांता पेट से है, मैं उसका गर्भपात कराने की सोच रहा हूँ. यही गड़बड़झाला आर्थिक मोर्चे पर भी जो कि पूरा का पूरा मेरा ही किया-धरा है. लेकिन आप विश्वास रखें, मैं अपनी अराजकता को कायम रखने के लिए आपकी सहानुभूति नहीं पाना चाहता. नहीं, अब मैं आपसे कुछ भी नहीं मांगूंगा. यह मुझे अपनी नजरों में ही गिराता और मूर्ख बनाता है.”14 इन साक्षात् विकट वास्तविकताओं से मुक्तिबोध के गहरे घिरे रहने के बावजूद नामवर उन्हें ‘अक्षत स्वाभिमान’ सौंपते हैं, कुछ इस तरह – “आर्थिक विपन्नता व्यक्ति के स्वाभिमान को झुका देती है, लेकिन मुक्तिबोध जी ने गरीबी के बीच भी पूरी सावधानी और साहस के साथ जीवन भर स्वयं स्वाभिमान की रक्षा करते रहे.”15
अपनी तथा अपने लोगों की रचनाओं के छपने की जुगत में मित्रों-परिचितों तक उनकी प्रशंसा के पुल बाँध कर पहुंच बनाना एवं एक मित्र-परिचित की दूसरे से शिकायत अथवा आलोचना : साहित्यकारों के बीच एन-केन-प्रकारेण अपना काम निकलने की युक्ति आम है पर इसे एक सीमा से बाहर जाने पर नैतिक नहीं कहा जा सकता. ऊंची प्रशंसा पाने वाले लेखकों से इस नैतिकता पालन की अपेक्षा की जाती है. जाहिर है, बाजदफा इस कसौटी पर मुक्तिबोध भी खरे नहीं उतरते दीखते.
अपनी मृत्यु से कुछ माह पूर्व यानी 1964 में कमजोर सेहत में चलते मुक्तिबोध जहाँ अपने स्वास्थ्य का हालचाल लेने के लिए भारतभूषण अग्रवाल का शुक्रिया व्यक्त करते हैं वहीं अपने सबसे निकटतम एवं आत्मीय मित्र नेमिचंद जैन को लिखे 1948 के एक अंग्रेजी पत्र में एक नकारात्मक टिप्पणी करते हैं. अनुवाद में मोटा आशय इन शब्दों में ले सकते हैं, “भारत भूषण एक सयाना आदमी हैं, मैं यह अवश्य कहूँगा. वे सभी दृष्टियों से एक प्रैक्टिकल आदमी हैं.”16 और, हम जानते हैं कि इस प्रैक्टिकल का हिंदी अर्थ खुदगर्ज अथवा मतलबी इंसान के आसपास जाता है. बाद में भारत भूषण की मदद से वे एक प्रेस की नौकरी पाते हैं.
नौकरी पाने की बदहवास फ़रियाद पहुँच वाले परिचित लोगों से करना :
नामवर सिंह के नाम दिनांक 17 अगस्त 1957 को लिखे पत्र में पूछते हैं: “क्या हिंदी के लेक्चरर की जगह दिला सकेंगे?”17
नामवर को ही 15 मई, 1958 के पत्र में नागपुर से लिखते हैं – “अगर कविता-प्रकाशन की कोई योजना हो तो मैं आपके पास कवितायेँ भेज दूँ. …मुझे आपकी शर्तें जो भी होंगी मंजूर होंगी. …संभवतः मैं जुलाई में कहीं पास-पड़ोस में लेक्चरर हो जाऊंगा. वैसे, मेरी इच्छा है कि आप लोगों के समीप रहूँ, जिससे मैं कुछ पढ़ाई कर सकूँ. हमलोग इधर बहुत पिछड़े प्रदेशों में रहते हैं और साहित्यिक गतिविधियों से घनिष्ठ संपर्क नहीं रख पाए. यदि बनारस में मेरे लायक नौकरी मिले तो अवश्य लिखिएगा.”18
12.03.1943 का नामवर को अंग्रेजी पत्र, नौकरी याचना का संदर्भ है – “मैंने पार्टी से त्यागपत्र देने का मन बना लिया है. हालाँकि अपने इस निर्णय के बारे में पार्टी को बताया नहीं है. सो, अब तक इस बात को कोई नहीं जानता. अब भी, अगर संभव है, क्या आप मुझे कलकत्ता जैसे किसी बड़े नगर में न सही, किसी छोटे शहर अथवा अंदरूनी शहरी क्षेत्र में कोई नौकरी दिला सकेंगे? इस बारे में मुझे सूचित करें तथा कोई सलाह दें.”19
विष्णुचंद्र शर्मा के नाम सन 1957 का पत्र, “आपसे क्या कहें? हम दोनों भाई राज्य-पुनर्गठन की चपेट में नौकरियों से हाथ धो बैठे या तकलीफ उठा चुके हैं. आप के उधर, हिंदी के लेक्चरर की कोई जगह है? भाई की सरकारी नौकरी भी जो अभी है, कै दिन की है, कहा नहीं जा सकता. निवेदन की जरूरत इसलिए पड़ी कि इससे आप समझ लेंगे हम किस ‘संक्रमण’ में से गुजर रहे हैं.”20
ऐसे पत्रों, निवेदनों की संख्या काफी है जिसमें अपना दुखड़ा रोते हुए मुक्तिबोध ने अपने मित्रों-हितनातों से नौकरी लगवाने की गुहार लगाई है. बावजूद नामवर सिंह एवं अनेक लोग मुक्तिबोध को सदा स्वाभिमानी रहने का दावा करते हैं. एक तो मुक्तिबोध को अपना अंग्रेजी ज्ञान बघड़ाने का आज के सशक्त मान्य हिंदी कथाकार-कवि उदय प्रकाश की तरह काफ़ी शौक और नशा था. उदय प्रकाश फेसबुक पर अपनी 90 प्रतिशत बात अंग्रेजी में ही लिखते हैं. मुक्तिबोध ने अपनी दर्जनों चिट्ठियां हिंदी लेखक नेमिचंद जैन को अंग्रेजी में ही लिखी जबकि जैन ने हमेशा उन्हें हिंदी में जवाब दिया. हद तो यह देखने को मिलती है कि दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगाँव में हिंदी व्याख्याता पद के लिए दिया गया उनका आवेदन भी अंग्रेजी में था. दूसरे कि यह आवेदन काफ़ी रोचक है. व्याख्यता पद की अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करते हुए उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा, उपलब्धि एवं वैश्विक बौद्धिक ज्ञान का ऐसा प्रदर्शन किया है, मानो वे सब एक लेक्चरर पद की योग्यता में ही शुमार हों. यह भी देखने योग्य है कि इस आवेदन में अपनी ‘अनैतिक’ रचनात्मक उपलब्धि को भी वे बतौर अपनी प्रतिभा पेश करते हैं. उदाहरण के लिए, कामायनी पर हंस में छपी अपने समीक्षात्मक लेख के आगे आलोचना पत्रिका में छापे जाने को वे अपनी उपलब्धि बताते हैं. जबकि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी रचना/चीज़ को दूसरी पत्रिका में छपवाना लेखकीय बेईमानी और छल माना जाता है. कोई भी प्रतिष्ठित पत्रिका अप्रकाशित रचना को ही छपने का शर्त रखती है. मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘इस आलेख की लोकप्रियता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि थोड़े फेर बदल के साथ इसे प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना’ में पुनः प्रकाशित किया गया.”21 जबकि साफ़ है कि यह फेरबदल आलेखकर मुक्तिबोध ने खुद किया होगा एवं अपने इस आलेख को दुबारा छपने के लिए भेजा होगा. यहाँ स्मरणीय है कि मुक्तिबोध बिना पारिश्रमिक लिए प्रायः अपनी रचना नहीं छपने देते थे. जान पड़ता है कि उन्होंने दोनों पत्रिकाओं से उन्होंने अपने एक ही लेख के लिए पारिश्रमिक उगाहा होगा, यानी एक ही माल को दो जगह बेचने का यह धंधा सा हो गया.
नौकरी के लिए दिए गए मुक्तिबोध के आवेदन में उन्होंने अपने पारिवारिक दायित्वों का भी इशारा किया है एवं एक निश्चित राशि वेतन के रूप में चाही है. यहाँ वे कहते हैं, “जहाँ तक न्यूनतम स्वीकार्य वेतन पर विचार का प्रश्न है, मैं चार संतानों का पिता हूँ. अस्तु 200 रुपए प्रतिमाह तथा मंहगाई भत्ता को बहुत बड़ी रकम नहीं माना जाना चाहिए. खासकर, ऐसे आदमी के लिए जो साहित्य के प्रति पूर्णतः समर्पित हो. इसके साथ कुछ प्रमाण पत्र संलग्न हैं. इस महाविद्यालय में आपके कृपापूर्ण नियंत्रण में काम का अवसर मिलने पर मैं आपकी सम्पूर्ण संतुष्टि का सर्वोत्तम प्रयास करूँगा.”22 अब आप ही बताइये, एक योग्य एवं आत्मसम्मान से युक्त व्यक्ति क्या इस तरह से नौकरी की याचना करेगा? और, यदि नियोक्ता ईमानदार है, योग्य प्रतियोगी के चुनाव पर है तो पद की योग्यता से इतर के गुण कथनों के आवेदन यानी पैरवी भरे दरख्वास्त को वह क्या सरसरी तौर पर ही ख़ारिज नहीं कर देगा? और, किसी के कृपापूर्ण नियंत्रण में काम करना क्या होता है? विडंबना अथवा संयोग देखिये कि यह नौकरी मुक्तिबोध को एक व्यक्ति की पैरवी के बाद मिली. नौकरियों एवं काम के लिए मित्रों से अनुनय व सिफारिश करने के संदर्भ मुक्तिबोध के अनेक पत्रों में मिलते हैं. जबकि नामवर सिंह इस तरह का सर्टिफिकेट देते हैं, “…मुक्तिबोध अपने स्वाभिमान के प्रति हमेशा सजग रहे. विपरीत और दिल दहला देने वाली स्थितियों में जीते हुए भी कभी गलत के साथ समझौता नहीं किया, पूरी जिंदगी अपने सिद्धांतों कि उन्होंने रक्षा की.”23 उपर्युक्त ‘स्वीपिंग स्टेटमेंट है नामवर सिंह की. कहिये कि लापरवाह एवं सच से अलग बयान. बल्कि सच यह है कि स्वाभिमान एवं सिद्धांत की रक्षा में मुक्तिबोध एक अदना-असहाय व्यक्ति से ही बार बार असफल होते हैं, और यह कोई बुरी बात नहीं है बल्कि एक आम कठिनाई भरे जीवन की एक बानगी है.
स्पष्टतः कथनी और करनी का अंतर हाड़मांस के बने मुक्तिबोध के यहाँ भी है, गो कि नामवर सिंह जैसे लोग मुक्तिबोध की अखंड भक्ति में यह बोध करना नहीं चाहते.
मुक्तिबोध की अकुंठ-अप्रतिहत-अनालोच्य प्रशंसा में उतरते सापेक्ष संपादक महावीर अग्रवाल के तर्क-दरिद्र बातों को जब नामवर सिंह आंखमूंद कर डिट्टो करते हैं तो समझ में आता है कि हिंदी के नामवरों एवं नामवरी की भी असलियत क्या है? मुक्तिबोध के जीवन एवं रचना गुण का कथन करते हुए अग्रवाल उस पतंजलि तक पहुँच जाते हैं जहाँ अभी गेरुआ शूद्र व्यापारी रामदेव पहुंचा हुआ है! अग्रवाल पतंजलि का एक उद्धरण टांक बांचते हैं – “’एकः सब्दः सम्यक ज्ञात सुप्रयुक्तः स्वर्ग लोकेच कामधुक भवति’ – अर्थात एक ही शब्द जानो. सम्यक रूप से जानो. सभी जगह उसका इस्तेमाल करो. अगर इतना ही करो तो इस लोक में तुम्हारी समस्त कामनाएं पूर्ण होंगी.” और, नामवर इस मात्रा में लच्छेदार हुंकारी भर बैठते हैं – “…आप देखिए, पतंजलि ने मुक्तिबोध जी से कुछ कहा नहीं, सहज संयोग की बात है मुक्तिबोध ने पतंजलि के विचारों के अनुरूप ही अपना रचना संसार विकसित किया. …और, मृत्यु के बाद ही सही उनकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो रही हैं. यह सौभाग्य भी बहुत कम कलाकारों को प्राप्त होता है.”24 तो देखा आपने, इस ‘सौभाग्यवादी’ मार्क्सवादी आलोचक और सर्ववादी महावीर अग्रवाल ने मुक्तिबोध को हमें कैसे समझा समझाया है?
हिन्दू धर्म के बेसिरपैर के मिथकीय धारणाओं एवं शब्दों के सहारे जो फैंटेसी अथवा काल्पनिक बिम्ब मुक्तिबोध द्वारा उकेरे गए हैं वे उनकी वैज्ञानिक चेतना में भारी सेंध जैसे हैं. “मिथक वांग्मय में तीर्थ, स्वर्ग-नरक, देवी-देवता, पुनर्जन्म, आत्मा-परमात्मा आदि शामिल हैं पर इन आकर्षक मिथकों का एक मात्र केंद्र ब्राह्मण समाज के परिरक्षण का प्रयत्न है. हर मिथक के केंद्र में ब्राह्मण है.”25 और, यह अन्यास नहीं है कि मुक्तिबोध का ‘ब्रह्मराक्षस’ भी ब्राह्मण का भूत है.
‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ कहानी में दकियानूस धारणा को बल प्रदान हुआ मिलता है. कहानी का नायक ब्रह्मराक्षस अपना परिचय स्वयं देते हुए कहता है – “अपने मानव-जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विराजमान रहा।” मुक्तिबोध के अनुसार कोई ब्राह्मण अपने जीवन में ज्ञान अर्जन ही करता रहा और समाज की भलाई में अपने ज्ञान का कोई उपयोग नही किया, अतः अपनी मृत्यु के बाद उसकी आत्मा इस संसार में ही अटक गयी और वह ब्रह्मराक्षस बन गया, जिसकी मुक्ति अपने किसी योग्य शिष्य को अपना सारा ज्ञान सौंपकर ही हो सकती है ताकि समाज की भलाई में उस ज्ञान का कुछ उपयोग हो सके.
गीता में भी ब्रह्मराक्षस का वर्णन है- गीता के आठवें अध्याय में बताया गया है कि ब्रह्मराक्षस वह व्यक्ति था जिसमे बाह्मण और राक्षस दोनों के गुण थे. एक ब्राह्मण दम्पति के बारे में बताया गया कि अति ज्ञानवान होने के बावजूद वे मांस खाते थे, चोरी करते थे, व्यभिचार करते थे और इसके कारण मृत्यु के बाद ब्रह्मराक्षस बन गए. गीता में ब्रह्मराक्षस कि मुक्ति का मार्ग भी बड़ा ही आसान बताया गया है. जिस वृक्ष पर ब्रह्मराक्षस रहते थे, एक दिन उसके नीचे कोई पंडित गीता के श्लोकों का पाठ कर रहा था, ब्रह्मराक्षस ने सिर्फ गीता के श्लोक का आधा भाग गलती से सुन लिया और सुनने मात्र से ही उसकी मुक्ति हो गयी. हालांकि मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस का रास्ता संघर्ष का है, बड़ा कठिन है, दु:साध्य जप-तप का है.
तो क्या कोई भी कठिन रास्ता मार्क्सवाद का हो जाता है, भारतीय मार्क्सवादियों को प्यारा हो जाता है?
मुक्तिबोध के जीवन संघर्षों की बात करें तो उन्होंने अपने जीवन में व्यवस्था को कभी महत्व नही दिया. और, यह अच्छी बात नहीं. किसी के व्यक्तित्व की यह भारी कमी मानी जानी चाहिए. डाक्टर की सलाह पर अपने स्वास्थ्य को लक्ष्य कर बीड़ी एवं चाय पीना छोड़ दिया था, या एक हद की कोशिश की थी. साफ़ है, बीड़ी पीने की आदत को वे नुकसानदेह मानते थे पर इस लत को बार बार छोड़ते-पकड़ते अंतत इस बुरी लत के आजीवन शिकार ही रहे. उनका यह लापरवाह व्यक्तित्व कतई किसी प्रशंसा का हकदार नहीं हो सकता. उनकी चिट्ठियों में भी इस बात का जिक्र आता है. पर उनकी पहचान का ट्रेड मार्क हमने उस फोटो को रखा है, जिसमें वे बीड़ी का कश लेते मुद्रा में है. जबकि उनके कई फोटो हमें प्राप्त हैं. क्या किसी व्यक्ति के आचरण के साधारणताबोध के लिए उसके किसी व्यसन का महिमामंडन जरूरी है? बीड़ी पीता चित्र मुझे बड़ा विचलित करता है। उनके चाहने वाले (और अब तो साहित्यकारों के नशेड़ी होने को जस्टिफ़ाई करने वाली एक विचारधारा ही चल पड़ी है) कहते हैं कि उन्होंने बड़े कष्ट झेले , इसलिए उनका आचार उसी के अनुकूल विकृत हो गया और उसपर हमें उँगली नहीं उठानी चाहिए। बीड़ी मजदूरों के बीच में भी मुक्तिबोध जाते थे, उनकी समस्याओं को सुनते समझते थे. पर मुझे नहीं पता कि बीड़ी के ‘महात्म्य’ पर मुक्तिबोध के क्या विचार होते थे! वैसे, बीड़ी पीने के व्यसन को डाक्टर ने भी मना किया था तब जब वे पक्षाघात के शिकार हो गए थे. पर उन्होंने धूम्रपान न छोड़ा. राजनांदगांव गाँव से श्रीकांत वर्मा को लेखे 7 फरवरी 1964 के पत्र में संदर्भ है – “जीने और काम करने की आशा नहीं छोड़ी है. पुरानी आदतें वैसी ही बनी हुई हैं. उसने (डाक्टर ने) बीड़ी न पीने को कहा है, लेकिन अपनी संकल्प शक्ति को धूम्रपान के आगे निर्बल पा रहा हूँ. फिर भी प्रयत्न करना ही होगा.”26 जबकि नेमिचंद जैन को सन 1943 में लिखे अपने एक अंग्रेजी पत्र में भी वे चाय और धूम्रपान छोड़ चूकने की बात करते हैं. अनुवाद के हवाले से संदर्भ लीजिए, “मैंने चाय के साथ साथ धूम्रपान करना भी छोड़ दिया है. मैं अहले सुबह जगता हूँ, शारीरिक व्यायाम करता हूँ एवं तत्पश्चात गुनगुने पानी से नहाता हूँ.
प्रगतिशीलता स्वस्थ होनी चाहिए, स्पष्ट होनी चाहिए, निर्भ्रांत होनी चाहिए और विवेकी होनी चाहिए. नहीं तो आपके प्रगतिशील जीवन एवं रचना में संदेह की अथवा अन्यथा इस्तेमाल की थोड़ी भी गुंजाइश बनती है तो लोग आपको और आपकी लिखी-रची चीजों को उपयोग में ला लेंगे और आप कठघरे में आ जाएँगे. बहुत दिन नहीं बीते हैं जब धुर हिंदूवादी एवं राष्ट्रवादी संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हिंदी एवं अंग्रेजी मुखपत्र (क्रमशः पाञ्चजन्य और और्ग्नाइजर) ने बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर द्वारा आर्यों के मूलनिवासी होने की स्थापना का अपने पक्ष में इस्तेमाल किया था. जबकि उक्त पत्रिकाओं के सम्बद्ध आलेखों में संघ को प्रिय विचारक एवं स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक के आर्यों के ईरान क्षेत्र से आने की स्थापना को छुआ भी नहीं गया था. यह भी कि हम धार्मिक अंधविश्वासों के अप्रगतिशील विचारों में किसी हिस्सेदारी को प्रगतिशीलता के खांचे में नहीं रख सकते. कीचड़ से कीचड़ नहीं धोया जा सकता. मसलन, यदि स्त्रियों को मस्जिद में नमाज पढ़ने-पढ़ाने, मंदिर में पुरोहिताई-पंडिताई कराने का अधिकार दे दिया जाए तो यह धर्मसिद्ध पुरुष एकाधिकार में बट्टा लगाने की बड़ी कार्रवाई तो होगी लेकिन अन्धविश्वास की सेहत पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा. ताड़ से गिरकर खजूर पर अटकना गिरने के खतरे का टलना नहीं हो जाता!
लगे हाथ ‘प्रगतिशीलता’ पर एक नायाब आलोचक की बात. नंदकिशोर नवल कहते हैं कि 1936 में लखनऊ में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना-सम्मलेन के बाद सचेत रूप से प्रगतिशील आन्दोलन का प्रसार किया जाने लगा और इस आन्दोलन से जो पहली कवि पीढ़ी पैदा हुई उनमें शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा थे. नवल लिखते हैं – “ये सारे कवि न केवल प्रगतिशील लेखक संघ से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे, बल्कि प्रायः ये सब के सब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य थे. शुक्र है कि इनमें से आधे कवियों ने कविता में संघ या पार्टी के निर्देशों का अंधानुसरण नहीं किया और जिन्होंने किया, उन्होंने भी भिन्न प्रकार की कविताएँ लिखने के लिए अपने रचनात्मक व्यक्तित्व को खुला रखा. निर्देशों के अनुसार कविता लिखने वाले कवि हैं – केदार, नागार्जुन और रामविलास.”27
‘संकीर्ण प्रगतिशीलता’ जैसा नायाब टर्म देते हुए नवल कहते हैं, “जहाँ तक शमशेर, त्रिलोचन और मुक्तिबोध की बात है, ये प्रगतिशीलता के बृहत्तर परिवेश में काव्य-सृजन करने वाले कवि थे. इसी का परिणाम था कि उनकी कविताओं में चित्रित यथार्थ संकीर्ण प्रगतिशीलता की सारी सीमाओं को तोड़ कर चलता है और उनकी शैली भी रूढ़ न होकर निजी है.”28 मुक्तिबोध को जैसे ‘संकीर्ण प्रगतिशील’ कवि न मानते हुए प्रगतिशील आलोचकों के विरुद्ध नवल इस तरह हमलावर होते हैं – “ताज्जुब नहीं कि शमशेर और त्रिलोचन के साथ वे (मुक्तिबोध) भी प्रगतिशील आलोचना में उपेक्षित रहे.

“…मैं बहुत सारा काम प्रकाशकों से उठा लाता हूँ. मुहम्मद पैगम्बर के जीवन का एक रेखा-चित्र लिखा है.”29 मुहम्मद पैगम्बर की शरण में जाने में कौन सा मार्क्सवाद है? और, प्रकाशकों से काम उठा लाने की सुविधा एवं सहूलियत कितने लेखकों को ‘नसीब’ होती है? इस सहूलियत पाने में क्या मार्क्सवादी व्यक्तित्व एवं सोच का क्षय निहित नहीं है? जब पेट की खातिर मार्क्स को छोड़ पैगम्बर की शरण में जाया जा सकता है तो क्रांतिकारिता कहाँ बचती है, किधर को बचती है?
“…नेमि बाबू आज तक मेरे आत्मीय हितैषी हैं. उन्होंने 110 रुपए कुछ माह पहले भेजे थे. वह मकान किराए और बढ़ती जाती आर्थिक दरार में गुम हो गए. अभी तक कर्जदार के हाथ बंधक रखी नथ या दूसरी चीज़ें वापस नहीं लौटा सका हूँ.
सन ’49 में इलाहाबाद जाकर भी अपनी किस्मत आजमा चुका हूँ, एक छोटा सा उपन्यास लिखा था. बड़ी उम्मीद बंधी थी- शमशेर या नेमिचंद प्रकाशक से उसे बेचकर कम से कम 250 रुपए दिला ही देंगे. उस सिलसिले में शमशेर की कोशिशों से 140 रुपए मिले भी थे.”30 यहाँ ‘किस्मत’ से बिंधने में क्या मार्क्सवाद से स्खलित होने का मेल नहीं है?
अपनी दयनीयता की रक्षा में, जस्टिफिकेशन में मुक्तिबोध कुछ यों भी बयान करते दीखते हैं – “संसार में बहुत धूर्त हैं और शायद मैं उनमें से एक हूँ. कोई व्यक्ति जो अपने बच्चों का पालन-पोषण न कर सके, अपनी पत्नी को सूखी न रख सके या ज्यादा सही यह है कि उसे भाग्य पर छोड़ दे, वह ऐसा व्यक्ति है जो प्रायः घृणा के योग्य है. लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ. व्यक्तिगत रूप से मैं गरीबी से नहीं डरता. लेकिन कोई भी जो अपने प्रियजनों की आँखों के चारों ओर काले ही काले घेरे देखता रहे, अपने अस्तित्व को सराह नहीं सकता है. मेरे लिए वे आँखें अभिशाप हैं. उन्होंने इंगित नहीं, अनिष्ट की पूर्वसूचना दी है.”31
‘आज तक प्रकाशकों से मुझे सुख नहीं मिला है.’32
बिहार के सुशील कुमार को अमिताभ बच्चन द्वारा ‘होस्ट’ किये गए टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ का विजेता बनने पर केंद्र सरकार के एक मंत्रालय ने उन्हें अपना ‘अम्बेसडर’ बनाया था. अमिताभ बच्चन भी अभी गुजरात सरकार में ‘अम्बेसडर’ हैं. तुक्के से विजेता बना यह व्यक्ति न तो वक्तृत्व कला का धनी था न ही उसमें कोई अलग से रेखांकित करने योग्य मेधा दिखती थी. लेकिन उसके साथ जनभावना का साथ होने को ताड़ सरकार ने भी उसे शिखर महत्व दे दिया था. एक साल के बाद न तो वह अम्बेसडर रहा न ही अपने व्यक्तित्व का कोई छाप अन्यत्र छोड़ सका. 5 करोड़ रुपए की इनामी राशि इनामी राशि जितने वाले इस युवक ने तब साक्षात्कारों में बताया था कि उसका इरादा आइएएस बनने का है. वर्षों बीत गए, शायद, आइएएस की परीक्षा में बैठने की उसकी उम्र भी बीत चुकी है. अगर उसमें रशि कोई प्रतिभा होती तो अन्य धन्धेबाज़ संस्थाएं भी उसका दोहन जरूर करतीं और उसका बाजार में विज्ञापन मूल्य बना रहता! यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि मुक्तिबोध का साहित्य की सुर्खियों में आना भी अनायास हुआ था. हाँ, अंतर यह है कि मुक्तिबोध को बहुत कुछ ड्यू मिला था जबकि सुशील को मिला एडवांटेज अनड्यू था, और समय ने भी उसे अनड्यू साबित किया था. गहरे बीमार मुक्तिबोध के जीवन के अंतिम समय में तत्कालीन मध्यप्रदेश एवं केंद्र सरकार ने इलाज में मदद करने में तत्परता दिखाई थी. विडंबना देखिये कि सत्ता एवं मठाधीशों से ताजिंदगी दूर भागने की कोशिश करने वाले मुक्तिबोध को अंततः इन्हीं प्रतिष्ठानों एवं प्रतिष्ठितों का सहारा मिला. न तो मुक्तिबोध की चिकित्सा को मदद को सरकारों का सामने आना विस्मयकारी है न ही साहित्य क्षेत्र के नामचीन धुर विरोधियों का उनकी प्रशंसा में आ लगना. जैसी बहै बयार पीठ तब तैसी कीजै – हर क्षेत्र के सयानों का आजमाया मुहावरा है. मुक्तिबोध का जन्म और परायण ‘भव्य’ रहा जबकि जीवन संघर्ष आतप. और यह जीवन संघर्ष और आतप मुक्तिबोध का अपना चुना हुआ था.
प्रभाकर माचवे का 19 जुलाई, 1964 को ‘धर्मयुग’ में ‘दिल्ली में मुक्तिबोध’ शीर्षक से छपा आलेख मुक्तिबोध के अंतिम दिनों का जो करुण चित्र खींचता है उसमें उनके सगुन ईश्वर में विश्वास को भी पुष्ट करता है. दिल्ली स्थित ‘एम्स’ में मुक्तिबोध की गंभीर बीमार होने की स्थिति का पता देते हुए माचवे लिखते हैं, ‘…बेहोशी, बेहोशी. बीच बीच में दर्द से कराहते हैं. जोर से एक चीख उठती है. कभी बुदबुदाहट….’राम-राम….राधेकृष्ण.’33
जीवन के अंतिम क्षणों में हरिवंश राय बच्चन, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय जैसे कुछ तत्कालीन ताकतवर साहित्यिकों के प्रयास से मुक्तिबोध का अंतिम काल बीमारी के उपचार से लेकर कई अन्य मामलों में जरूरी सरकारी सहायता पा सका था जिसके चलते उनकी मृत्यु और अंतिम संस्कार भव्य हो सके थे. मार्क्सवादी मान्य मुक्तिबोध को ठेठ हिन्दू रीति से मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्त कराने के करतब भी किये गए जिसमें बड़े बड़े प्रगतिशील एवं वामपंथी मान्य साहित्यकार जन भी शरीक हुए. 11 सितम्बर को मुक्तिबोध प्राण त्यागते हैं और अगले दिन दिल्ली के निगमबोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार होता है. लेकिन 20 सितम्बर को इलाहाबाद (प्रयाग) स्थित संगम पर उनकी अस्थि-विसर्जन की धार्मिक रूढ़ि भी निभाई जाती है और इसमें मुक्तिबोध के बेटे, रमेश मुक्तिबोध समेत हरिशंकर परसाई, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता जैसे वामपंथी साहित्यकार भी शरीक होते हैं. गिरिराज किशोर अपनी डायरी में दर्ज करते हैं – “संगम… दोपहर का समय…दो नौकाएं. बराबर-बराबर….एक में अस्थियाँ हैं….दूसरे में साहित्यकार.”34
मुक्तिबोध के अंधविश्वासों में उतरे होने की झांकी हमें हिंदी आलोचक रमेश कुन्तल मेघ के बयान में भी मिलता है. इस बाबत महावीर अग्रवाल के कुछ प्रश्नों के उत्तर वाला संस्मरणात्मक पत्र-अंश द्रष्टव्य है. ‘मुक्तिबोध से मुलाकात’ शीर्षक से शामिल यह पत्र मुक्तिबोध पर विशेषांक के लिए विचार आमंत्रित करने के क्रम में लिखा गया है – “…उनकी पत्नी शांता जी ने यह भी बताया था कि वे कभ-कभार कुछ रहस्यवादी (तांत्रिक जैसे) अनुष्ठान भी करते थे. तब उनकी अपर्नार्मल अवस्था हो जाती थी. ओरांग उटांग, जिरह बख्तर, खजानों के दावेदार जैसे सन्दर्भ और डाक्टर रामविलास शर्मा का (उक्त) विवादस्पद कथन जांचा जाना चाहिए कि मुक्तिबोध में तांत्रिक दशा तथा क्रियाओं में संलिप्तता रही थी, कि नहीं.”35
हरिशंकर परसाई लिखते हैं, “..खलबली तब मची, जब मुक्तिबोध दिल्ली (ले जाए) गए. बड़े सवाल हुए कैसे जा रहे हैं? …प्रधानमन्त्री ने खुद दिलचस्पी ली. अच्छा! …अब लगा कि मामला अखिल भारतीय हो गया. अब तो जो इसमें दिलचस्पी लेगा, वह भी अखिल भारतीय होगा, अंतर्राष्ट्रीय भी हो सकता है. इतने में खबर फैली कि आभिजात्य के महासंचालक ने भी मुक्तिबोध को (असफल मगर ऊर्जा का कवि) मान लिया है और उसे अपना लिया है.”36
कल्पना पत्रिका के एक स्तंभकार परसाई ने अपने स्तम्भ में संपादक के नाम यों पत्र लिखा – “बात यह हुई कि 11 तारीख को मुक्तिबोध की मृत्यु हुई और मैं दिल्ली चला गया. वहां जाकर देखा कि मुक्तिबोध तो महान मान लिए गए हैं. …मुक्तिबोध जब मृत्यु के पास पहुंचे तब बताने वालों ने बताया कि वह तो असाधारण हैं. और जब उनकी मृत्यु हो गई तब बताया कि वह तो महान था. जो इतने सालों से कहते रहे थे कि मुक्तिबोध कविता नहीं लिखते, भाषण देते हैं, वे भी जय बोलते पकड़े गए. मार्क्सवादी विश्वासों के कारण जो उन्हें कवि नहीं मानते थे, वे भी कहने लगे कि उन विश्वासों के ‘बावजूद’ वह बड़ा कवि था. और जो प्रगतिशील कठमुल्ले, सिर्फ नारों की समझ का मालिक होने के कारण, उनके विकट बिम्बों को और उन्हें गूंथते विचारों को समझते थे, वे भी मानने लगे कि हाँ, वह बड़ा कवि था.”
“हरिशंकर परसाई सोच में पड़ गए हैं, नामवर जी ने कुछ संस्मरणात्मक लिखने को कहा है. संस्मरणात्मक कुछ भी लिखने में अपने को बीच में डालना पड़ता है. संस्मरण की यह मजबूरी है..”37 और यह मजबूरी किसी संस्मरण को सम्पूर्ण, बेबाक एवं ईमानदार आकार लेने में बड़ी बाधा है. खासकर तब जब वह इस ख्याल से सृजित हो कि उसका सार्वजनिक उपयोग होगा. यह भी है कि कोई संस्मरण बेबाक और ईमानदार दिख भी सकता है पर वह यदि तिक्त सम्बन्धों को संबोधित करने वाला है तो उसमें पूर्वग्रहों के पुट हो सकते हैं. इन्हीं आधारों पर मेरा कहना है कि मुक्तिबोध का जो विराट साहित्यिक कद आकार लिए हुआ है उसमें मुक्तिबोध पर उनके आत्मीयों का कहीं समुचित रूप से बेबाक और ईमानदार संस्मरण अथवा व्यक्तित्व एवं लेखन चित्रण आना मुश्किल है. अतः मुझे लगता है, बहुत संभव है कि मुक्तिबोध द्वारा लिखे गए अथवा मुक्तिबोध पर लिखे गए संस्मरण, पत्र, तथ्यांकन, मूल्यांकन एवं अन्य तरीके के मंतव्य जो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं उनमें कुछ न कुछ कहीं न कहीं तथ्यों एवं वस्तुस्थितियों का छुपाव संभव है. ऐसे में मुक्तिबोध का खरा पुनर्मूल्यांकन जरूरी हो जाता है ताकि उनको मिले साहित्यिक देवत्व से मुक्ति मिले! एक स्वस्थ ईमानदार लेखनी बोध हमें मुक्तिबोध की रचनाओं से प्राप्त हो सके. और यह हिम्मती पुनर्मूल्यांकन का काम भक्त, मित्र, अमित्र, सापेक्ष अथवा कुंठाग्रस्त कलम से नहीं हो सकता, बल्कि इसके लिए तटस्थ एवं निरपेक्ष दृष्टि चाहिए.
विष्णुचंद्र शर्मा कहते हैं कि संस्कार की भिन्नता के बावजूद श्री नेमिचंद जैन ने मुक्तिबोध की अद्वितीयता, मौलिकता, विशिष्टता और सीमा को (मुक्तिबोध रचनावली की) भूमिका में पहचाना है. नेमिचंद जैन लिखते हैं – “संस्कार की इस भिन्नता के बावजूद हमारे बीच एक गहरी आत्मीयता का जो रिश्ता 1941-1942 में शुजालपुर के दिनों में बना, वह कई मामलों में जीवन की दिशाएं बदल जाने के बावजूद, और भी गहरा ही होता गया. शायद यह दो परस्पर-भिन्न स्वाभाव और संस्कारों वाले व्यक्तियों के बीच एक-दूसरे की गहरी आंतरिक जरूरतों को पूरा कर सकने का रिश्ता था. एक निर्मल निश्छल आत्मीयता मुक्तिबोध के स्वभाव की लुभावनी खूबी है.38
विष्णुचंद्र शर्मा ’आत्मकथा’ के ‘कथा-शेष’ हिस्से में लिखते हैं, “मुक्तिबोध विचारों में आधुनिक लेकिन इसके साथ ही वैज्ञानिक व्यवहार में कई बातों में बिलकुल सामंती थे…वे नई-नई वैज्ञानिक उपलब्धियों से मुग्ध होते थे, पर परिवार-नियोजन के खिलाफ मानते थे. परिवार-नियोजन को पूंजीवादी सभ्यता की प्रवृत्ति मानते थे.”39 “मुक्तिबोध विचारों में आधुनिक लेकिन इसके साथ ही वैज्ञानिक व्यवहार में कई बातों में बिलकुल सामंती थे”- मुझे लगता है कि यह तथ्यभेदन करते हुए विष्णुचंद्र शर्मा को कुछ विस्तार में जाना चाहिए था. बताना चाहिए था कि मुक्तिबोध परिवार-नियोजन को पूंजीवादी सभ्यता की प्रवृत्ति किस बिना पर मानते थे? क्योंकि परिवार-नियोजन की मुखालफत अथवा समर्थन अब तक ‘ईश्वरेच्छा का आधार’ लेकर ही किया जाता रहा है. परिवार-नियोजन का विरोध कहीं न कहीं ईश्वर की व्यवस्था में यकीन करना भी है. और, अनेक उद्धरणों से प्रमाणित होता है कि मुक्तिबोध ईश्वरवादी एवं भाग्यवादी थे. ‘ब्रह्मराक्षस’ एवं ‘अँधेरे में’ सहित उनकी कई बड़ी मानी जाने वाली कवितायेँ ईश्वरवादी एवं भाग्यवादी जैसे इनपुटों की पारम्परिक ग्राह्यता के साथ ही रचित हैं.
विष्णुचंद्र शर्मा लिखते हैं कि राजनांदगांव से वे एक-दो बार किसी सिलसिले में जबलपुर आते और खूब खुश रहते, रंगीन सपने में डूबते हुए कहते – “पार्टनर, ऐसा हो कि एक बड़ा-सा मकान हो. सब सुभीते हों, कोई चिंता न हो. वहां हम कुछ मित्र रहें. खूब बातें करें, खूब लिखें, पढ़ें और जंगल में घूमें.” जबकि दूसरी तरफ मुक्तिबोध सुभीते वाला जीवन जीने वालों को अपनी दुनिया का नहीं मानते थे और कहते हैं कि ऐसे लोगों से हमारी कैसे पट सकती है? इस विरोधाभासी इच्छा का हवाला लीजिये फिर से विष्णुचंद्र शर्मा का ही – “जबलपुर आए, तो मेरे घर पर एक मित्र हनुमान वर्मा से मुलाकात हुई. फिर हनुमान अपने घर ले गया. वहां अच्छा-सा सोफा था. डाइनिंग टेबल भी थी. मुक्तिबोध को खटका लग गया. वे शिष्ट व्यवहार करने लगे. लौटते वक्त रास्ते में मुझसे बोले, ‘पार्टनर! इस आदमी से अपनी कैसे पट सकती है! उसका सोफा देखो, यह अपनी दुनिया का आदमी नहीं है. ही बिलौंग्ज़ टू ए डिफ़रेंट वर्ल्ड.’” विष्णुचंद्र शर्मा के मित्र को मुक्तिबोध ने उसके रहने के ‘अच्छे’ ढंग के कारण अपनी दुनिया का आदमी नहीं माना. इसपर कई ब्याज-कथन उपज सकते हैं. पहला यह कि विष्णुचंद्र शर्मा वैसे व्यक्तियों से भी मधुर सम्बन्ध गांठते थे जो उनकी दुनिया का आदमी नहीं हो सकता जबकि, मुक्तिबोध का सम्बन्ध केवल अपनी दुनिया के आदमियों से था! दूसरे, जिन मजदूरों, विपन्न व्यक्तियों की चिंता मुक्तिबोध को थी वे आवश्यक रूप से मुक्तिबोध की दुनिया के ही आदमी थे! क्या यह अधिक संभव नहीं कि पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी मुक्तिबोध को मजदूर एवं गरीब-गुरबा अपने दुनिया का आदमी न मानकर महज एक सहानुभूति रखने वाला आदमी समझते रहे हों?
सापेक्ष के इसी अंक में महावीर अग्रवाल के एक सवाल कि, ‘गजानन माधव मुक्तिबोध के जिए गए जीवन और उनकी रचनाओं के बीच के अंतर्संबंध को आप किस रूप में देखते हैं?’, डा. एम. श्याम राव बताते हैं – “मुक्तिबोध को आत्मसंघर्ष का कवि माना जाता है. लेकिन वे केवल आत्मसंघर्ष के ही कवि नहीं हैं, वे आत्मसंघर्ष करते हुए आत्मालोचन करते हुए आत्मविस्तार करते हैं. आत्मविस्तार करते हुए वे मध्यवर्गीय संस्कारों और सीमाओं से मुक्त होकर सर्वहारा वर्ग से जुड़ जाना चाहते थे, लेकिन यह काम उतना आसान नहीं था., इसलिए वे आत्मसंघर्ष के अग्निपथ पर चलते रहे.”40 यहाँ मुक्तिबोध की चाहनाओं का अन्तर्विरोध स्पष्ट है. प्रसंगवश, यह भी बताते चला जाए कि मुक्तिबोध ने लेक्चरर की नौकरी का स्वप्न पाला था और एक हद में वे अपनी इस ‘बड़ी’ इच्छा अथवा अभिलाषा को पाया भी, पर ‘लोकल’ स्तर पर. राजनांदगाँव जैसे कस्बाई क्षेत्र की लेक्चरी एवं महानगर के कॉलेज एवं विश्वविद्यालय की ‘शाही’ अध्यापकी में फर्क होता है. वैसे, फर्क तो एक महानगर के ही कॉलेजों में जमीन आसमान का हो सकता है! उदहारण के तौर पर, दिल्ली विश्वविद्यालय स्थित स्टीफंस कॉलेज, हिन्दू कॉलेज, मिरांडा हाउस के प्राध्यापक का ब्रांड वैल्यू वही नहीं होगा जो दिल्ली विश्वविद्यालय के ही एक अदने से कॉलेज के शिक्षक का है. जबकि इन समस्त जगहों पर दिल्ली विश्वविद्यालय का टैग होने के चलते ‘फेस वैल्यू’ तो एक ही है.
वैसे, जाति-व्यवस्था पर एक टिप्पणी मैं मुक्तिबोध की यहाँ लगाना चाहूँगा जिससे ऊपर चीजों को साफ होने में सहूलियत होगी. 29 मई 1962 को अग्नेष्काजी सोनी को लिखे अपने बेहद लम्बे पत्र के अंत में वे बहुत ही सटीक जाति-विचार करते हैं जो आज भी मौजूं है – “…सामन्ती समाजव्यवस्था में शूद्र शिक्षा का कार्य नहीं कर सकता था, अब कोई निम्नवर्गीय जन उच्चतर व्यवसायों में हैं. इसी प्रकार स्त्री पर भी जितने अंकुश पहले थे उतने नहीं रहे. फिर भी, जाति-व्यवस्था ने एक दूसरे ढंग से जोर पकड़ा है. वोट प्राप्त करते समय जाति को, गैर-रस्मी तरीके से, विचार में रखा जाता है. उदहारणतः, यदि मंत्री कायस्थ हुआ तो वह कायस्थ को विशेष प्रश्रय देता है, और यदि वह निम्न जाति का हुआ तो निम्न जातिवालों को.”41
मुक्तिबोध के कोई सुस्पष्ट विचार एवं चिंता हमें हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यवस्था, पूजा-पाठ जैसे व्यर्थ के वाह्याचार, ब्राह्मणवाद (सवर्णवाद), दलित समुदाय के परिप्रेक्ष्य में क्यों देखने को नहीं मिलती? क्यों मुक्तिबोध अम्बेडकर का कहीं नाम तक नहीं लेते जबकि गाँधी को वे बार बार अक्षत श्रद्धा एवं अनोचनापूर्वक याद करते हैं. अपनी इतिहास पुस्तक में भी उन्होंने अम्बेडकर का नाम तक नहीं लिया है. इतिहास पुस्तक की ही बात करें तो गाँधी पर उन्होंने कई अध्यायों में विचारा है. पाठ्यक्रमों में लगी इस इतिहास पुस्तक में भी ऐसे प्रश्न प्रायः नदारद हैं. विभिन्न अध्यायों के अंत में छात्रों के लिए जो प्रश्नावली रखी गयी है उसमें कबीर एवं रैदास से सम्बद्ध एक भी सवाल क्यों मिलता?
अग्रवाल जब नामवर सिंह से पचास वर्षों बाद 2014 में मुक्तिबोध का मूल्यांकन करने को कहते हैं तो नामवर को भगवतगीता/महाभारत की ऊलजुलूल काल्पनिक कथा लिखने वाले कथित महर्षि वेदव्यास याद आते हैं. नामवर कहते हैं – “महर्षि वेदव्यास ने साहित्य और सौंदर्यशास्त्र को समझने के लिए एक महती सूत्र दिया है, ‘मैं तुम्हें यह रहस्य बताता हूँ कि इस लोक में मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.’42 नामवर आगे बताते हैं, “मुक्तिबोध की सोच न केवल तर्कों पर आधारित है बल्कि गणितीय तथा भौतिक प्रयोग के निष्कर्षों से बनी है.43 जबकि मुक्तिबोध की ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता एवं ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ कहानी मिथक, अन्धविश्वास से नकारात्मक खाद पानी लेकर ही रचे गए हैं. हम स्मरण रखें, लोहा लोहे को काटता है पर कीचड़ से पाँव नहीं धोया जा सकता. दलित साहित्य जिस तरह से धार्मिक-अन्धविश्वासपरक धारणाओं के विरोध, नकारात्मक मिथकीय मुहावरों की दुत्कार का संबल लेकर चलता है वह वामपंथी-प्रगतिशील साहित्य का भी रास्ता होना चाहिए लेकिन उनका काम बिना भाग्य-भगवान एवं हिन्दू-संस्कारी मुहावरों को अपनाए नहीं चलता. अफ़सोस कि मुक्तिबोध के यहाँ भी यह सब है. हम विकार के स्वीकार से कोई विवेक कथा नहीं गढ़ सकते. बलात्कार का कोई सौन्दर्य कथन जैसे नहीं चल सकता वैसे ही किसी अंधविश्वास के अंगीकार के सहारे से हम विश्वास की कथा का बीज नहीं बो सकते.

(शेष अगली post में)
देवमूर्ति से परे मुक्तिबोध का अक्स (दूसरा एवं अंतिम भाग)
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अपनी इतिहास पुस्तक में मुक्तिबोध ने भी गाँधी को ‘राष्ट्रपिता’ माना है और ‘राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी’ नाम से एक अध्याय लिखा है जिसपर छत्रों के लिए 8 प्रश्न पाठ से उत्तर करने के लिए रखे गए हैं. एक अन्य अध्याय ‘राष्ट्रीय चेतना का विकास : द्वितीय चरण’ से छात्रों के लिए चुने गए 6 सवालों में 1 गाँधी पर है. गाँधी वाले चैप्टर तक में अम्बेडकर को मुक्तिबोध ने घुसने नहीं दिया है. गोलमेज सम्मेलन में अस्पृश्य प्रतिनिधित्व की चर्चा को बेहद संक्षिप्त रख समेटते हुए अम्बेडकर का नाम तक नहीं लिया गया है. मेक्डोनाल्ड के प्रसिद्ध सांप्रदायिक निर्णय/पंचाट के मसले से भी अम्बेडकर के जिक्र को न आने दिया गया है. एक अध्याय ‘महानों का मन्वन्तर’ शीर्षक से है, जो कि पुस्तक का अंतिम पथ है. इसमें दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सैयद अहमद खां, मौलाना अबुल कलाम आजाद और मुहमद इक़बाल उप-शीर्षकों से बात की जाती है पर महानों की इस गिनती में शाहू जी महाराज, फूले, पेरियार तो नहीं ही हैं अम्बेडकर तक कहीं नहीं हैं. किसी अन्य पाठ में भी नहीं. इस पुस्तक के किसी पाठ की प्रश्नावली का हिस्सा शूद्र-दलित विचारक एवं दार्शनिक नहीं बनता दीखता. कबीर, रैदास, चार्वाक गण, मक्खलि गोसाल, शाहू जी महाराज, फूले, पेरियार, अम्बेडकर – कोई भी नहीं. जैसे, साम्यवादी बुद्धिजीवी एवं भारत व विश्व साहित्य एवं दर्शन के विषद अध्येता एवं ज्ञाता मुक्तिबोध को इन सब महान विभूतियों से कभी कोई सबका ही न पड़ा हो! इनसे जैसे मुक्तिबोध का सर्वथा अपरिचय हो! पुस्तक में मुक्तिबोध द्वारा बौद्ध, जैन धर्म, चार्वाक परम्परा कि नास्तिक विचारधारा पर कोई प्रश्न न डालना अचम्भे में डालता है. सिद्ध-नाथ साहित्य और तुलसीदास का जिक्र न आना भी हैरतअंगेज है जबकि इनको लेकर सम्बद्ध अध्यायों से प्रश्न भी सृजित किये जाने चाहिए थे. ‘राजपूतों की जातीय विशेषताओं पर प्रकाश डालिए’ – इस तरह का प्रश्न भी फ्रेम किया गया है, और, अकबर को ‘जगद्गुरु’ कहकर उनपर टिप्पणी करने का प्रश्न छात्रों के लिए बनाया गया है.
इस इतिहास पुस्तक में मिथकीय और ऐतिहासिक तथ्यों, एवं चरित्रों के साथ भी घालमेल प्रस्तुत है. विवादस्पद मान पुस्तक से निकाला गया एक अंश देखिये, “किन्तु भविष्य के रक्त सम्मिश्रण का यह परिणाम था कि राम भी सांवले होने लगे और कृष्ण भी. गोरी तो राधा भी थी, या सीता, किन्तु वैदिक काल में उक्त सम्मिश्रण नहीं हुआ था. आर्यों को अपने रंग रूप का बड़ा अभिमान था. उनमें वर्ण द्वेष था.”44 मुक्तिबोध को क्यों नहीं पता है कि राम, कृष्ण, राधा, सीता वायवीय त्रेता-द्वापर युग में पृथ्वी पर विचरने वाले काल्पनिक पात्र हैं? प्रसंगवंश, मुक्तिबोध की इस किताब से निकले गए अंश में यह भी था – “महात्मा गांधी के अनन्य सहचर महादेव देसाई और उनकी पत्नी सौ. कस्तूरबा जेल में ही मर गयी.”45 समझा जा सकता है कि कैसे कोई अप्रिय ऐतिहासिक तथ्य भी इतिहास से बेदखल किया जा सकता है? सत्ता संचालकों पर देसाई एवं कस्तूरबा के जेल में मरने पर क्यों आपत्ति हुई?
नामवर सिंह के रचनात्मक जीवन का परिप्रेक्ष्य लेकर बात करें तो मुक्तिबोध से उम्र में 9 साल छोटे नामवर की लेखकीय शुरुआत 1941 में स्वजाति की जातीय पत्रिका ‘क्षत्रिय मित्र’ में कविता के छपने से होती है जबकि मुक्तिबोध पहली बार दिसम्बर 1935 में माधव कॉलेज मैगजीन, उज्जैन में कवि रूप में छपते हैं, और उनकी यह रचना ‘हृदय की प्यास’ शीर्षक की होती है जो 4 सितम्बर 1935 में रची गयी होती है. आगे देखें तो जहाँ मुक्तिबोध की पहली रचना-पुस्तक उनके मृत्यु के कुछ पूर्व 1962 में प्रकाशित होती है वहीँ नामवर सिंह की पहली पुस्तक ‘बकलम खुद’ पर्याप्त पहले अर्थात सन 1951 में ही छप जाती है. 1964 में महज 47 की उम्र में जहाँ अपनी एक पुस्तक को ही प्रकाशित हुआ देखकर मुक्तिबोध जीवन रण हार जाते हैं वहीं 1964 में 38 वर्षीय नामवर सिंह की 7 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी होती हैं. बता दें कि इंदौर से 17 अगस्त 1957 को नामवर को लिखे पत्र में मुक्तिबोध ने कहा था कि ‘मेरी कविता पुस्तक-सम्बन्धी आपका प्रस्ताव मुझे स्वीकार है’. जबकि तथ्य है कि उनकी पहली काव्य पुस्तक मृत्यु बाद मृत्यु वर्ष यानी 1964 में ही ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ शीर्षक से छपती है. कहना यह है कि नामवर की मदद से उपर्युक्त प्रस्तावित ओउस्तक नहीं छप पाती. मुक्तिबोध की मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशि‍त की थी, जिसका दूसरा संस्करण ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशि‍त हुआ. वर्मा की खुद की पहली काव्य-कृति ‘भटका मेघ’ सन 1957 में प्रकाशित हो चुकी होती है जबकि दूसरी (मायादर्पण) 10 वर्ष बाद 1967 में छपती है. यह तथ्य है कि मुक्तिबोध सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला को कवि के रूप में बिलकुल भी भाव नहीं देते थे जबकि मार्क्सवादियों तक ने ‘वेदांती प्रगतिशील’ निराला को हिंदी का सबसे बड़ा आधुनिक कवि बनाया है, मुक्तिबोध को उनके बाद रखा है.
राहुल सांकृत्यायन के प्रति प्रेरणास्पद प्रशंसा भाव है तो उनको कहीं नकारात्मक शेड्स में भी दिखाते हैं. प्रशंसा भाव का उदाहरण, “राहुल जी का व्यक्तित्व, अतीत और वर्तमान के दोहरे मानदंडों को संक्रांति-युग में बदल रहा है. रात के कॉलेज हौल में जब ‘सांस्कृतिक एकता’ पर वे व्याख्यान दे रहे थे तभी से मैं अपनी जीवन यात्रा पर भी सोच रहा था. अपने व्यक्तित्व को सिमेटने वाले तत्व से आत्म-संघर्ष करने के लिए मुझे भी राहुल जी की तरह सक्रिय रहना चाहिए.”46 जबकि एक जगह मुक्तिबोध जैसे सांकृत्यायन की बड़ी छवि से जलते हुए कहते हैं कि उनकी आलोचना करते लोग डरते हैं क्योंकि उनका अलग रसूख है.
प्रेमचंद के बड़े बेटे एवं सरस्वती प्रेस के मालिक श्रीपत पर मुक्तिबोध की एक आपत्तिजनक टिप्पणी देखे – “श्रीपत का कद नाटा है. अमृत का लम्बा. श्रीपत को कभी कभी दौरा आता है – ख़ुशी का या नाराजगी का दौरा.” इसी अनबन अथवा झगड़े की परिणति में शायद मुक्तिबोध को ‘हंस’ से हटना भी पड़ता है.
वैसे, कबीर के प्रति हिंदूवादी रामचंद्र शुक्ल का जैसे पूर्वग्रह रहा वैसा ही कुछ मुक्तिबोध को अपने समकालीन छद्म प्रगतिशीलों से साबका रहा. प्रसंगवश, एक रोचक जानकारी मुक्तिबोध को कवि न मानने को लेकर’ यह देखें. एक पुस्तक ‘सुकवि-समीक्षा’ (प्रकाशक भारती भवन, पटना) में हिंदी के प्रतिनिधि कवियों का समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है जिसमें मुक्तिबोध के सारे महत्वपूर्ण समकालीन समानधर्मा स्वाभाविक रूप से रखे गए गए हैं पर अचरज की बात की 30 कवियों की इस समीक्षा-पुस्तक में मुक्तिबोध नदारद हैं. संयोगवश पुस्तक का प्रथम प्रकाशन काल नवबर 1964 ठहरता है जो कि मुक्तिबोध का मृत्यु वर्ष है. इस समय तक ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ प्रकाशित हो चुका था और मुक्तिबोध मृत्योपरांत कवि रूप में प्रसिद्धि के शिखर पर थे. पुस्तक के संस्करण भी आए, पांचवां सन 1989 में आया जिसमें दो कवियों नागार्जुन और जानकीवल्लभ शास्त्री को जोड़ा गया पर अबतक भी मुक्तिबोध छूटे रहे! और यह तब है कि “श्री आनन्दनारायण शर्मा (संपादक) ने अपनी इस पुस्तक में चेष्टा की है, और सफल चेष्टा की है कि वे हिंदी के प्रतिष्ठित प्रतिनिधि कवियों को, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को, उनकी काव्य-प्रतिभा और प्रगति को पाठकों के सम्मुख दुरुस्त ढंग से रखें.”47

पाद-टिप्पणियाँ :
तुम्हारी क्षय, राहुल सांकृत्यायन, संस्करण 2003, पुस्तक महल, इलाहाबाद
धर्म-दर्शन : सामान्य एवं तुलनात्मक, प्रकाशक, मोतीलाल बनारसीदास, संस्करण 2006, लेखक – डा. रमेन्द्र, पृष्ठ 113
साक्षात्कार; डा. रामविलास शर्मा से बातचीत, सं. कर्ण सिंह चौहान, प्रथम संस्करण 1986, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 17
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-1, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 113
पहल 64-65 (मार्क्सवादी आलोचना विशेष), ‘मार्क्सवाद देवमूर्तियाँ नहीं गढ़ता’ नामक शिव कुमार मिश्र का आलेख, पृष्ठ 235
वही, ‘मार्क्सवाद देवमूर्तियाँ नहीं गढ़ता’ नामक शिव कुमार मिश्र का आलेख, पृष्ठ 232-233
संघर्षों का ताप : मुक्तिबोध (सापेक्ष 56, नामवर सिंह से बातचीत विशेषांक), पृष्ठ 60
सापेक्ष – 55, संपादक – महावीर अग्रवाल, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’, ‘मुक्तिबोध : मेरी डायरी में’ खंड का पृष्ठ 128
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 129
वही, पृष्ठ 27-28
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-1, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 23
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 344
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 214
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 156
संघर्षों का ताप : मुक्तिबोध (सापेक्ष 56, नामवर सिंह से बातचीत विशेषांक), पृष्ठ 46
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 270
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 346
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 347
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 210
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 371
सापेक्ष – 55, संपादक – महावीर अग्रवाल, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’, पृष्ठ 17
सापेक्ष – 55, संपादक – महावीर अग्रवाल, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’, पृष्ठ 18
सापेक्ष – 55, संपादक – महावीर अग्रवाल, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’, पृष्ठ 18
सापेक्ष – 55, संपादक – महावीर अग्रवाल, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’, पृष्ठ 20-21
पहल 64-65 (मार्क्सवादी आलोचना विशेष), ‘आलोचना और आलोचना’ नामक मुद्राराक्षस का आलेख, पृष्ठ 74
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 369
निराला-काव्य की छवियाँ
बीसवीं सदी का हिंदी साहित्य, बीसवीं सदी की हिंदी कविता, पृष्ठ 27
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 261
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 265
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 266
मुक्तिबोध रचनावली, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 465
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 465
सापेक्ष – 55, संपादक – महावीर अग्रवाल, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’, पृष्ठ 25
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 472
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 467
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 472
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 469
सापेक्ष – 55, संपादक – महावीर अग्रवाल, ‘मुक्तिबोध : 50 वीं पुण्यतिथि’, पृष्ठ 486
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 390
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 21
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 21
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 493
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-6, पेपर बैक संस्करण 1998, राजकमल प्रकाशन, संपादक नेमिचंद जैन, पृष्ठ 594
मुक्तिबोध की आत्मकथा, पृष्ठ 128
सुकवि – समीक्षा, भारती भवन, पटना, संपादक-डा. आनन्द नारायण शर्मा, संस्करण 1989, (पुस्तक-प्रवेश के पहले एक बात – कपिल, प्राचार्य आर.ड़ी.एंड ड़ी.जे. कॉलेज, मुंगेर)

संपर्क : बसंती निवास, प्रेम भवन के पीछे, दुर्गा आश्रम गली, शेखपुरा, पटना – 800014, इमेल musafirpatna@gmail.com, mobile 07903360047

Language: Hindi
Tag: लेख
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