देवघर मरघट में
क्या तुमने फिर मुझे बुलाया,
मरघट के सन्नाटे में, प्यारे?
मैं आई हूँ सब छोड़-छाड़,
तुम्हारे पथ पर बन सहारे।
यहीं इसलिए न विलीन हुई,
मैं बूँद बनकर संग तुम्हारे,
क्योंकि बार-बार आना था,
कठिन डगर पर संग तुम्हारे।
तुमने फिर से मुझे पुकारा,
मैं आ खड़ी हूँ मोड़ कठिन पर,
कि इस बार जब इतिहास लिखे,
तो तुम न रहो अकेले पथ पर।
वीरान मरघट, मौन सभा,
फिर क्यों मेरी कथा न बोली?
बिना राधा के शब्द सभी,
हों रक्तहीन, बेमानी बोली।
सुन प्रिय! मैं आई फिर से,
तुम्हारी संगिनी बन चलने,
कोई न कहे कि राधा संग,
बस प्रेम की लय बन झुलने।
मेरी वेणी में अग्निपुष्प हैं,
पर क्यों न इतिहास ने देखा?
तुमने फिर से मुझे बुलाया,
देखो, मैं फिर हूँ अडिग यहाँ।
—–श्रीहर्ष—-