देख सिसकता भोला बचपन…
देख सिसकता भोला बचपन…
देख सिसकता भोला बचपन,
भारी बोझ तले।
क्या किस्मत है इन बच्चों की,
मन में सोच पले।
पूर्ण तृप्ति के एक कौर को,
कैसे तरस रहे।
सामने मालिक मूँछो वाले,
इन पर बरस रहे।
हल न कोई पीर का इनकी,
बेबस हाथ मले।
दिन पढ़ने-लिखने के, पर ये
कचरा बीन रहे।
जीवन पाकर भी मानव का,
भाग्य-विहीन रहे।
हौंस-हास-उल्लास बिना ही,
जीवन चला चले।
कोई खाए पिज्जा बर्गर,
कोई जूस पिए।
घूँट सब्र का पी रहे ये,
दोनों होंठ सिए।
छप्पन भोग भरी थाली का,
सपना रोज छले।
खिलने से पहले ही कोमल,
कलियाँ मसल रहे।
हाय कहें क्या अपने जन ही,
सपने कुचल रहे।
सुनी करुण जो गाथा इनकी
आँसू बह निकले।
कोई कहे मनहूस इनको,
कोई करमजला।
कौन कहे कैसे सँवरेगा,
इनका भाग्य भला।
विपदा जमकर बैठी ऐसे
टाले नहीं टले।
पाएँ वापस बचपन अपना,
मोद भरे उछलें।
मुक्त उड़ान भरें पंछी-सी,
कोमल पंख मिलें।
हासिल हों इनको भी खुशियाँ,
मेरी दुआ फले।
© सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद
‘सुरभित सृजन’ से