देख रहा हूँ
साहिल पे बैठ के समंदर देख रहा हूँ
है कितना लाचार धुरंधर देख रहा हूँ।
बेजान नज़ारे कश्तियाँ और किनारे
बाहर नहीं खुद के अंदर देख रहा हूँ ।
लहरें लौट रही हैं टकरा के किनारों से
और मैं मायूस होके मंजर देख रहा हूँ।
उसकी यादोँ के जजीरे हैं आबाद यहीं
तन्हाइयों ने डाला है लंगर देख रहा हूँ ।
बेहद खामोशी से लम्हा लम्हा ही सही
दिल में उठता एक बवंडर देख रहा हूँ।
-अजय प्रसाद