देखी अगर न होती उसकी बुराई शायद
देखी अगर न होती उसकी बुराई शायद
बेकार यूँ न जाती अपनी भलाई शायद
होता न ख़ूब चर्चा यूँ प्यार का यहाँ पर
होती न यूँ ही अपनी जगहंसाई शायद
हालांकि ज़िन्दगी भी माना था सिर्फ़ उसको
लिक्खी थी फ़िर भी किस्मत में बेवफ़ाई शायद
वो हादसे में देखो बच भी गया है ज़िन्दा
फ़िर काम आ गई उसकी पारसाई शायद
बाहर क़फस के आकर ख़ामोश था परिन्दा
कब क़ैद से मिली पर उसको रिहाई शायद
चाही थीं वो ज़मीनें थीं बस्तियाँ जहाँ पर
है आग फ़िर अमीरों ने जा लगाई शायद
करता नहीं अदब वो आँखों में उसकी देखो
पानी न मुरव्वतों का है बेहयाई शायद
बोला नहीं जो मेरे आगे कभी भी देखो
ये आग पीठ पीछे उसने लगाई शायद
औरों को मिल न पाए या छीन ले न कोई
“आनन्द” की हक़ीक़त उसने छुपाई शायद
– आनन्द किशोर