देखते रहे
घनाक्षरी
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देखते रहे अनेक स्वप्न बार बार हम,
किन्तु जिन्दगी में सब पूर्ण न हुए यहीं।
प्रयास खूब थे किए एक रात दिन किए,
बिन रुके चले रहे पांव न थके कहीं।
परन्तु भाग्य ही कभी साथ ही न रह सका,
आस थी जहां बहुत मुश्किलें बढ़ी वहीं।
किन्तु हार मानकर व्यर्थ बैठना न अब,
कर्मयोग के पथिक हार मानते नहीं।
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भोर का है दृश्य खूबसूरत बहुत प्रिय,
लालिमा से देखिए सुसज्जित गगन है।
दूर हो गई निशा है खिल उठी दिशा दिशा,
हर्षित हुआ हृदय ज्यों खिला सुमन है।
छोड़ दीजिए जो बात सामने नहीं अभी है,
हो रहा साकार देख लीजिए स्वपन है।
मुस्कुरा रहा है सूर्य नील नभ से झांकता,
साथ में लिए सुवर्ण रश्मियां सघन है।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य