देखते रहे
देखते रहे,
एकटक उस मासूम से बच्चे को हम,
जो जल्दबाजी में ढूंढ रहा था कचरे में,
कुछ पूरा सा, जो शांत कर सके उसकी,
भूख और गरीबी को,
इस गूंगे-बहरे समाज में ढूंढ रहा था,
वो अपना वजूद भी कहीं,
उसका होना ना होना, मायने नहीं रखता,
इस समाज में,
जो बैठा है आँखों पर पट्टी बांधे,
गंधारी के समान,
या देख कर भी नहीं देखते,
या देखते हैं पर महसूस नहीं होता हमें,
अपना अपराध, देखते रहे हम,
किताब नहीं उसके हाथ में,
कचरे का थैला है,
और हम देखते रहे,
और सिर्फ देखते ही रहेंगे शायद !!