दूरी रह ना सकी, उसकी नए आयामों के द्वारों से।
अनवरत लड़ते रहे वो, खुद के अंधेरों से,
जागे कई बार, फिर भी रहे दूर सवेरों से।
भटकती राहें मिलती रहीं, हाथों की लकीरों से,
चाहतें थी मरने की, पर दुआएं जीने की मिलती रहीं, फ़क़ीरों से।
सींचा था रिश्तों को, प्रेम के अटूट धागों से,
बचा ना सके स्वयं को हीं, साजिशों के सूत्रधारों से।
स्तब्ध रही आत्मा, पीठ पर होते वारों से,
और दबाते रहे वो, शब्दों में जताये, आभारों से।
कश्तियाँ लड़ती रहीं तूफानों में, नसीबों से,
आये कई बार किनारों पर, फिर दूर होते गए, बसेरों से।
तपे थे धूप में तो, गुजारिशें छाँव की, कर रहे थे, दरख्तों से,
दरख़्त भी रो पड़े, ऐसी फटकार पड़ी उनको, पतझड़ों से।
दर्द में भींगने को तरसती थी आँखें, आंसुओं से,
पर वो दो बूँद भी तो, कब के सुख चले थे, जख्मों के कतारों से।
कटी पतंग जैसे गिरे थे, आसमां की बाहों से,
फिर भी बचा लिया खुद को, लूटेरों की निग़ाहों से।
मूर्छित हो चले, तो आयी सदायें कहीं दूर, पहाड़ों से,
आँखें खुली तो नज़रें, हटती हीं नहीं थी, नज़ारों से।
वो तारा गर्दिशों को चीर, चमक उठा था, किस्मत की पुकारों से,
और फिर दूरी रह ना सकी, उसकी नए आयामों के द्वारों से।