दूब और दरख़्त
जमीन में फैली वो दूब,
सूख जाती है मिट जाती है,
रौंदी भी जाती है,लेकिन…
वो दुबारा उग ही आती है,
हरी हो उठती है,
फिर से फैलने लगती हैं,
परिस्थितियाँ अनुकूल,
जब धरा की होने लगती हैं….
लेकिन ऊँचे वो दरख़्त,
गिर जाने के बाद,
सूख जाने के बाद,
कभी फिर नहीं उलहते,
किसी परिस्थिति मे,
किसी भी मौसम मे…
वो बस चीरे जाते हैं,
केवल जलाये जाते हैं,
राख ही होते हैं…
(जमीन से जुड़कर जीना कभी मरने नहीं देता)
©विवेक’वारिद’*
दूब- दूर्वा