दूबे जी का मंच-संचालन
एक बार दूबे जी साइकिल से जा रहे थे
दूसरे की चुराई हुई कविता गुनगुना रहे थे
बड़ा ही आराम था
शाहपुर में काम था
जाने क्या सोचकर मेरे मोहल्ले की तरफ आए
ढेर सारे कवियों को एक जगह पाए
फिर क्या था, इनका संचालक मन जागा
पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम को पल भर में त्यागा
साइकिल खड़ी करके कवि मण्डली में आए
धीरे से एक कवि के कान में फुसफुसाए,
‘भाई साहब! मुझे कवि सम्मेलन के आयोजक से मिलवाओ
यदि हो सके तो मुझे ही संचालक बनवाओ’
कवि महोदय को मजाक सूझा
उन्होंने दूबे जी को समझा-बूझा
बोले,
‘संचालक की ही तो कमी है
इसीलिए सबकी आँखों में नमी है
आज स्थायी संचालक की पत्नी मर गई
बेचारे की सम्मेलन से छुट्टी कर गई
अच्छा हुआ,
आप सही समय पर आए
हम सभी कवियों को डूबने से बचाए
चलिए,
मंच पर आपका ही इन्तज़ार है
कवि सम्मेलन का मंच पूरी तरह तैयार है’
दूबे जी बड़े गर्व के साथ मंच पर आए
माइक सम्भाले और जोर से चिल्लाए,
‘सर्वप्रथम हम स्थायी संचालक की पत्नी को श्रद्धांजलि देंगे
उनकी आत्मा की शान्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करेंगे
फिर कवि सम्मेलन प्रारम्भ होगा
मुख्य अतिथि के कर-कमलों से इसका शुभारम्भ होगा’
सुनते ही श्रोताओं में खलबली सी मच गई
शुक्र है भगवान का कि जान इनकी बच गई
‘मंच से उतारो’
सभी एक स्वर में चिल्लाए
दूबे जी अवाक थे, समझ नहीं पाए
स्थिति समझते ही ये मन ही मन शर्माए
गर्दन झुकाई और मेरे पास आए
बोले,
‘यार! मामला कुछ ज़्यादा ही संगीन है
मैंने सोचा मीठा होगा, पर ये तो नमकीन है’
दूबे जी की हालत पर मुझको तरस आई
मैंने उनको पास बिठाकर असली बात बताई
‘न तो ये कोई शोक-सभा है, न तो है काव्योत्सव
आज यहाँ है मेरे एक कवि-मित्र का तिलकोत्सव।
✍🏻 शैलेन्द्र ‘असीम’