“दूध में दरार”
जब पुरखों के लगाए हाथों के बाग उजड़ने लगते हैं।
जब आपसी मतभेदों के दीवार बढ़ने लगते हैं।
जब गैर अपने, अपने पराए लगने लगते हैं।
जब अपनों के ही मीठी बातें,कांटों सा चुभने लगते हैं।
तब समझो कि दूध में दरार पड़ने लगते हैं।।
जब साथ चलने वाले ही देख अवसर बदलने लगते हैं।
जब अपनी बातें मनवाने को नीचा दिखाने लगते हैं।
जब गैर जिम्मेदार पुरुष,जिम्मेदारी का एहसास दिलाने लगते हैं।
जब अपने हित-अहित की बातें सुनाने लगते हैं।
तब समझो कि दूध में दरार पड़ने लगते हैं।।
जब आंगन में बच्चों के सन्नाटे पसरने लगते हैं।
जब तर-त्योहारों के रौनक भी अस्त-त्रस्त होने लगते है।
जब कुविचारों के अगणित शाखाएं निकलने लगते हैं।
जब मर्यादाएं ही अपना अस्तित्व बचाने लगते हैं।
तब समझो कि दूध में दरार पड़ने लगते हैं।।
वर्षा (एक काव्य संग्रह)/ युवराज राकेश चौरसिया