दुविधा
कोई मुझे भी अपने घर का..
रास्ता बता दे..
जाना कहाँ है, अनजान हूँ..
कोई तो मंजिल का पता दे..
हर मोड़ पर लगता है..
आ गया मंजिल का ठिकाना..
हर बार मंजिल रूठ कर..
बना लेती कोई नया बहाना..
कोई मुझ पर इतना अहसान कर दे..
मेरे रास्तों में थोड़ा..
मंजिल होने का ग़ुमान भर दे..
या फिर उस रफ़्तार का पता दे..
भीगे कमजोर पंखों को थोड़ी हवा दे..
या फिर मुझे भी मंजिल से..
आँख चुराना सिखा दे..
बैठ जाऊं रास्ते को मंजिल समझ..
बहाना बनाना सिखा दे..
या फिर रास्तों और मंजिल का..
सिलसिला ख़तम हो..
शाम ढले.. शून्य में विलीन होने का..
जतन ख़तम हो..