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28 Sep 2021 · 1 min read

दुर्भिक्ष

~~~~~~
अंगार उगलता सूरज
जलती मानव जाति है।
दुर्भिछ मचलता चलता
धरती सूखी जाती है।
इस धरा की छाती सूखी
सूखे नद,ताल,तलैया।
तारे ये नील गगन में
संताप जगत का है या?
हर ओर मची है पानी
पानी दो या गोली दो।
लो कहता छिपकर कोई
देता हूँ पानी ही तो।
गगनाँगन में मत तैरे
बरसे तेरी आँखों से।
रो सको न खुलकर आवे
क्रन्दन तेरी साँसों से।
तेरी नीलाम हैं साँसें
इस क्रूर व्याल के हाथों।
है लुटा-पिटा सा मानव
इस क्रूर काल के हाथों।
मेरे मन में पीड़ा है
मेरा मन धीरे रोता।
पर,विवश सा देख रहा बस
क्यों नभ ना अपना होता!
—————————————–

Language: Hindi
147 Views
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