दुर्गमता का पथ
दुर्गमता का पथ
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सकून से और सुखी होकर,
जीवन के दिन बिताने दूं?
कोई एक पथ बनाकर,
मैं चलूं तुम्हें भी जाने दूं?
कैसा है ये दुर्गम पथ!
समझ नहीं पाती हूं मैं,
उसे समझने फिर से,
चली आती हूं मैं!
चरण तुम्हारे जहां पर!
पद-रज बनी पड़ी हूं मैं,
मेरा पथ वही है,
पर्वत सी अटल अड़ी हूं मैं।
भूलना तो चाहूं सब भला,
पर! दर्शन की प्यासी अंखियां,
पथ निहारें नित तेरा,
भूलो मिलना,भूलो बातों की लड़ियां।
ये! उठती हुई आग की लपटें,
जो तुम तक प्रिय, नहीं जा पाएंगी,
पीड़ा तुम्हें देने को ,
वहां कोई वेदनाएं न आएंगी ।
तुम कविता, प्रवाहिनी बनो,
मैं बनूं झर-झर तान।
जन-जन को आनंदित कर दो,
प्रिय!सुना अपना सुरीला गान!!
सुषमा सिंह*उर्मि,,