दुआएँ लिपटी हैं
शुष्क जज़्बात से जब आँखें भरा करती हैं
रोज ख्वाबों की कोशिकाएँ मरा करती हैं
मुद्दतों हमने सँभाला है धड़कनों में जिन्हें
मिरी साँसें उन्हीं जख्मों को हरा करती हैं
दुआएँ लिपटी हैं यूँ जिस्म से कवच जैसी
बलाएँ पास फटकने से डरा करती हैं
उम्र की फस्ल का क्या बनना निगेबाँ जिसको
वक्त की बकरियाँ हर वक्त चरा करती हैं