दुःखित कृषक है बेचारा
विधा-लावणी
महंगाई की इस दुनिया में, दुःखित कृषक है बेचारा
बदल गयी ये दुनियां देखो, बदला है जीवन सारा
उठे अंधेरे प्रात सवेरे
डोर हाँथ ले बैलों की
फसल उगाने की चाहत में
चाल लगा दी खेतों की
न धूप से वो विचलित होते
न छांव की चाहत भरते
करे परिश्रम कठिन हमेशा
सदा सभी ऋतुएँ सहते
कठिन परस्थिति में किसान तो, कर लेता सदा गुजारा
महंगाई की इस दुनिया में, दुःखित कृषक है बेचारा
खून पसीने की मेहनत से
जग का पोषण है करता
खुद तो वो भूखा रहता पर
जग का पेट सदा भरता
कर्ज बढ़ा बेटी भी बढ़ती
यह कैसी हैरानी हैं
घर वर ढूंढ निकाला लेकिन
दाइज की बेमानी हैं
रुपये उचित न मिले फसल के, वेमौतों जाता मारा
महंगाई की इस दुनिया में, दुःखित कृषक है बेचारा
सूखा से फसलें सूखी सब
सूखे खेत खलियान हैं
मुठ्ठीभर दाना न गेह में
टूटे गए अरमान हैं
है जवान बेटी घर उसके
हुआ न कन्यादान हैं
कहते सब अन्नदाता उसे
पर वो गरीब किसान हैं
देखो सब किसान की हालत, कितना है लाचारा
महंगाई की इस दुनिया में, दुःखित कृषक है बेचारा
■अभिनव मिश्र”अदम्य